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घटते भूजल स्तर से उत्पन्न हो सकता है गंभीर जल संकट- डा० गणेश पाठक


10 जून को विश्व भूगर्भ जल दिवस पर विशेष-

बलिया ।

         पृथ्वी तल के नीचे विद्यमान किसी भूगर्भिक स्तर की सभी रिक्तियों में विद्यमान जल को भूगर्भ जल कहा जाता है। अर्थात् पृथ्वी की ऊपरी सतह के नीचे पृष्ठीय चट्टानों की संधियों, छिद्रों, दरारों एवं अवशिष्ट रिक्त स्थानों में स्थित जल की मात्रा को भूमिगत जल कहा जाता है। प्रकृति में उपलब्ध कुल जल संसाधन का 0.58 प्रतिशत भूजल है एवं कुल जलीय राशि के शुध्द जलीय भाग( 2.67 प्रतिशत) का 22.21 प्रतिशत है, जो भूसतह से4 किलोमीटर की गहराई तक स्थित होता है। पृथ्वी पर विद्यमान जल की कुल मात्रा 23,84,12,0000 घन किलोमीटर है, जिसमें से 80, 00,042 घन किलोमीटर  भूजल का है। इसके साथ ही 61234 घन किलोमीटर मृदा नमी भी पायी जाती है। इस तरह भूजल एवं मृदा नमी दोनों को मिलाकर भूगर्भ जल का निर्धारण होता है ।
    बलिया एक्सप्रेस के उप संपादक डॉ सुनील कुमार ओझा



                  फोटो डॉ सुनील ओझा

से  एक विशेष भेंटवार्ता  में अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा, बलिया के प्राचार्य एवं पर्यावरणविद डा० गणेशकुमार पाठक ने बताया कि भूगर्भ जल के अतिशय एवं अनियोजित दोहन तथा शोषण के चलते बलिया सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में एवं पूरे भारत वर्ष में दिन प्रति दिन भूजल की मात्र निरन्तर नीचे खिसकती जा यही है। भूजल के नीचे खिसकने का एक यह भी कारण है कि वर्षा की अनियमितता एवं कम वर्षा के कारण जिस गति भूजल का उपयोग हो रहा है, उस गति से पुनर्भरण नहीं हो पा रहा है। साथ ही साथ वन विनाश से हुए वनावरण के अभाव के चलते वर्षा जल धरातल पर रूक नहीं पा रहा है , बल्कि शीघ्र ही प्रवाहित होकर या वाष्पित होकर नष्ट हो जाता है, जब कि भूजल का पुनर्भरण वृक्षों की जड़ों से होकर शीघ्रता से हो जाता था। साथ ही वन क्षेत्रों में वृक्षों की पत्तियों, घास - फूस आदि के सड़ने गलने से धरातल फर एक परत सी बन जाती थी जो स्पंज की तरस काम करता था , जिसमें जल अवशोषित हो जाता था और मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती थी और भूजल का स्तर कायम रहता था।
    डा० पाठक ने बताया कि आज अपने देश का एक बहुत बड़ा क्षेत्र भूजल की मात्रि की दृष्टि से आंधकारमय( डार्क जोन) में आ गया है एवं अतिशय दोहन तथा शोषण का शिकार हो गया है। जल विज्ञानियों के अनुसार जिस क्षेत्र मे भूजल विकास का स्तर 65 प्रतिशत से कम होता है, उसे सुरक्षित क्षेत्र, 65 से 85 प्रतिशत वाले भूजल विकास स्तर क्षेत्र को धूमिल संभावना क्षेत्र, 85 से 100 प्रतिशत भूजल विकास वाले क्षेत्र को संभावना विहीन क्षेत्र एवं 100 प्रतिशत से अधिक भूजल विकास स्तर वाले क्षेत्र को अति दोहन क्षेत्र के अन्तर्गत माना जाता है, जो भूजल संभरण की दृष्टि से बेहद खतरनाक स्थिति मानी जाती है , क्योंकि ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र में विद्यमान नमी शीघ्र ही समाप्त हो जाती है और उस क्षेत्र का सम्पूर्ण " बायोमास" ही समाप्त होकर वह क्षेत्र पारिस्थितिकी असंतुलन का शिकार हैकर गंभीर संकट पैदा कर देता है।
       यदि भूजल विकास स्तर की दृष्टि से देखि जाय तो पूर्वी उत्तर- प्रदेश के 27 जिलों में से मात्र 11 जिले( बहराईच , बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, महराजगंज, चंदौली, सोनभद्र, मिर्जापुर, इलाहाबाद, कौशांबी एवं प्रतापगढ़ ) ही सुरक्षित जोन में हैं। यहां तक कि बलिया जनपद में भी भूजल विकास स्तर की स्थिति ठीक नहीं है, बल्कि यह धूमिल संभावना क्षेत्र में आ गया है।
      डा० पाठक ने बताया कि  भूमिगत जल से संबंधित समस्याओं को अति उपयोग एवं प्रदूषणजन्य समस्या के रूप में देखा जा सकता है। बलिया सहित पूरे पूर्वी उत्तर फप्रदेश में वर्षा की अनियमितता एवं अनिश्चितता के चलते भूमिगत जल के वार्षिक पुनर्भरण मात्रा में कमी होती जा रही है। इस क्षेत्र के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा भी खतरनाक स्थिति से गुजर रहा है। कृषि में प्रयुक्त घातक  रसायनों की मात्रा भी भूजल में मिलकर खतरनाक स्थित पैदा कर रहा है।
   डा० पाठक ने भूजल संरक्षण के बारे में बताया कि इसके लिए सबसे आवश्यक व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण करना होगा, पुराने तालाबों एवं गढ्ढों का जीर्णोधार करना होगा एवं अधिक से अधिक नये तालाब खुदवाने होंगे , कृषि में सिंचाई की तकनीकि में सुधारकर भूमिगत जल के दुरूपयोग  को कम करना होगा, दूषित जल को शुद्ध करने के उपरान्त ही जल स्रोतों में छोड़ना होगा, वर्षा काल से पूर्व कृषि भूमि की जुताई करनी होगी, भूजल के संतुलित एवं समुचित उपयोग हेतु व्यापख स्तर पर जन जागरूकता पैदा करनी होगी एवं भूजल में आर्सेनिक की समस्या से छुटकारा पाने हेतु जन जागरूकता के साथ ही शोध एवं अनुसंधान कार्यों के आधार पर वैज्ञानिक स्तर से समाधान ढूंढना होगा।
फोटो डॉ गणेश कुमार पाठक