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Article 377 पर SC में जिरह जारी, मुकुल रोहतगी बोले- यह मानवाधिकारों का उल्लंघन है



समलैंगिकता (होमोसेक्शुएलिटी) को क्राइम ठहराने वाली इंडियन पैनल कोड (IPC) की सेक्शन-377 पर सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संवैधानिक बेंच में सुनवाई शुरू हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के फैसले को पलटते हुए दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए रिलेशन को क्राइम कैटेगरी में डाल दिया था.

इस बीच पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी का कहना है, "समाज में बदलाव होते रहते हैं. इसके साथ-साथ नैतिक मूल्य भी बदलते हैं. जो 160 साल पहले नैतिक था, जरूरी नहीं कि आज भी नैतिक हो." 

बता दें कि पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी याचिकाकर्ताओं की ओर से सेक्शन-377 को हटाने के लिए बहस कर रहे हैं. जबकि, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता केंद्र की तरफ से बहस कर रहे हैं.

समलैंगिकता को क्राइम मानने वाली IPC की सेक्शन-377 को लेकर दायर हुई याचिकाओं की सुनवाई करने जा रही पांच जजों की बेंच में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंग्टन आर नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं.



सेक्शन-377 को लेकर दायर हुई याचिकाओं पर सुनवाई में एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता केंद्र सरकार को रिप्रेज़ेंट कर रहे हैं. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सरकार आज अपनी प्रतिक्रिया देगी.

पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुनवाई के दौरान कहा- 'जेंडर और सेक्सुअल पसंद को एक साथ नहीं रखा जा सकता है. लिंग और सेक्सुअल पसंद दो अलग-अलग बातें हैं. इन दो अलग मुद्दों को एक साथ नहीं रखा जा सकता है. यह पसंद का सवाल ही नहीं है.'

मुकुल रोहतगी ने कहा- 'इस केस में जेंडर से कोई लेना-देना नहीं है. यौन प्रवृत्ति का मामला पसंद से भी अलग है. यह नैचुरल होती है, जो पैदा होने के साथ ही इंसान में आती है.' उन्होंने कहा, 'यौन रुझान और लिंग (जेंडर) अलग-अलग चीजें हैं. यह केस यौन प्रवृत्ति से संबंधित है.'

पूर्व अटॉर्नी जनरल ने तर्क दिया, 'सेक्शन-377 के होने से एलजीबीटी समुदाय अपने आप को अघोषित अपराधी महसूस करता है. समाज भी इन्हें अलग नजर से देखता है. इन्हें संवैधानिक प्रावधानों से सुरक्षित महसूस करना चाहिए.'

एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 'यह केस धारा 377 तक सीमित रहना चाहिए. इसका उत्तराधिकार, शादी और संभोग के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए.'

सेक्शन-377 को अंग्रेजों ने 1862 में लागू किया था. इस कानून के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध (अननैचुरल सेक्स) को गैरकानूनी ठहराया गया है. अगर कोई महिला-पुरुष आपसी सहमति से भी अप्राकृतिक सेक्स करते हैं, तो इस सेक्शन के तहत 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. ।

सहमति से अगर दो पुरुषों या महिलाओं के बीच सेक्‍स भी इस कानून के दायरे में आता है. किसी जानवर के साथ सेक्स करने को भी इस कानून के तहत उम्र कैद या 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है ।
इस सेक्शन के तहत क्राइम को संज्ञेय (Cognizable) माना गया है. यानी इसमें गिरफ्तारी के लिए किसी तरह के वॉरंट की जरूरत नहीं होती. शक के आधार पर या गुप्त सूचना का हवाला देकर पुलिस इस मामले में किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है. एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समाज के लोग सेक्शन-377 को अपने मौलिक अधिकारों का हनन बताते हैं ।

सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दो वयस्कों (पुरुष-पुरुष या महिला-महिला) के बीच समलैंगिक संबंधों को क्राइम की कैटेगरी में बहाल किया था. कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से संबंधों को क्राइम कैटेगरी से बाहर रखने के दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के फैसले को कैंसिल कर दिया था.

इसके बाद रिव्यू पिटीशन दाखिल की गईं. उनके खारिज होने पर प्रभावित पक्षों ने मूल फैसले के रिव्यू के लिए पिटीशन दायर कीं. इसके बाद सेक्शन-377 को क्राइम कैटेगरी से बाहर रखने के लिए कई रिट पिटीशन दाखिल की गईं.

अगस्त, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार पर फैसला सुनाते हुए कहा था कि सेक्सुअल ओरिएंटेशन किसी व्यक्ति का निजी मामला है. सरकार इसमें दखल नहीं दे सकती.

एलजीबीटी से जुड़े नवतेज सिंह जौहर, सुनील मेहरा, अमन नाथ, रितू डालमिया और आयशा कपूर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर समलैंगिकों के संबंध बनाने पर सेक्शन-377 के कार्रवाई के अपने फैसले पर विचार करने की मांग की है. उनका कहना है कि इसकी वजह से वो डर में जी रहे हैं और ये उनके अधिकारों का हनन करता है.

इसके अलावा एलजीबीटीक्यू अधिकारों के लिए मुंबई के गैर सरकारी संगठन हमसफर ट्रस्ट की भी याचिका शामिल है. सुप्रीम कोर्ट में 25 से ज्यादा ऐसी याचिकाएं आईं, जिनमें सेक्शन-377 को अमान्य करार देने की मांग की गई थी.


इसके बाद सुप्रीम कोर्ट समलैंगिकों के संबंध बनाने पर सेक्शन-377 के तहत कार्रवाई पर अपने पहले के आदेश पर दोबारा विचार करने को तैयार हो गया. मामले को बड़ी बेंच मे भेजा गया था. पांच जजों की बेंच में मामला लंबित है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नाज फाउंडेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि हमें लगता है कि इसमें संवैधानिक मुद्दे जुड़े हुए हैं ।