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झारखंड में सीरियल किलर बनी भुखमरी, पर सच्चाई मानने को तैयार नही सरकार

 

    17 जुलाई 2018 ।।
    देबायन रॉय द्वारा न्यूज 18 को दी गयी जनहित की खबर जो देश प्रदेश की सरकारों की आंख को खोलने वाली है । साथ ही यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम सभी सेवाओ को डिजिटलाइज्ड करने के लिये पूरी तरह तैयार है ? भाई देबायन रॉय को दिल से ऐसी पत्रकारिता करने के लिये धन्यवाद और शुभकामनाये --मधुसूदन सिंह 

    यह कहानी है झारखंड के गिरिडीह जिले की, जहां सेवातंद गांव में एक परिवार भुखमरी की कगार पर है. भगवान न करे, लेकिन अगर इनमें से किसी की भुखमरी से जान जाती है तो कहा जाएगा कि ये मौत कुपोषण, टीबी या फिर पेट की खराबी के चलते हुई.
     गरीबो के लिये चलायी

    किसी रेस्टोरेंट में आप खाने के बाद आमतौर पर गर्म पानी में नींबू नीचोड़ कर हाथ धोते हैं. लेकिन सितला और उसके तीन बच्चों के लिए ये रात का खाना है. अगर किस्मत अच्छी हो तो कभी-कभी इस नींबू पानी के साथ थोड़ा नमक भी नसीब हो जाता है ।

    दरअसल यहां की राज्य सरकार को लगता है कि झारखंड में किसी की भी भुखमरी से मौत नहीं होती है. इस साल जनवरी में बुधनी सोरेन की मौत भुखमरी से हुई लेकिन सरकार अब भी ये मानने को तैयार नहीं है.

    आदिवासी महिला बुधनी ने अपने जीवन के आखिरी दिन जंगल में पत्ते खा कर बिताए थे. उसे स्कूल में अपने सात साल के बेटे के साथ मिड डे मिल (भोजन) खाने की इजाजत नहीं दी गई. जब वो अपनी भूख को मार नहीं सकी तो भूख ने उसे मार डाला.

    लेकिन सरकारी अधिकारी भुखमरी की बातों से इनकार करते हैं. गिरिडीह के डिप्टी कमिश्नर मनोज के मुताबिक, जब तक कि पूरा परिवार न मर जाए, इसे 'भुखमरी से मौत' नहीं कहा जा सकता है. उन्होंने कहा, ''इसे भुखमरी की मौत नहीं कहा जा सकता है. करीब एक महीने पहले सावित्री देवी की मौत को भी 'भुखमरी की मौत' कहा जा रहा था लेकिन उसका पूरा परिवार जिंदा था. अगर ये भुखमरी थी, तो परिवार के बाक़ी लोग भी मर जाते.''
    अपना अंत्योदय कार्ड दिखाती सितला


    सितला, बुधनी की काफी करीबी पड़ोसियों में से एक थी. भर पेट भोजन मिलना उसके लिए भी एक सपने की तरह है. लेकिन सितला की एक ही तमन्ना है कि उनके बच्चे को अनाज के लिए तरसना न पड़े. मिट्टी से बने एक बर्तन में चावल तलाशते हुए उसने गुस्से में कहा, ''मैं नहीं चाहती कि मेरा शरीर जब ठंडा पड़े तो मेरे बच्चे मेरे आस-पास हों. जब बुधनी की मौत हो गई, तो उसका ठंडा शरीर भूख से चिल्लाया. उसे सिर्फ कुछ अनाज की जरूरत थी."

    सितला अपने से ज्यादा अपने बच्चों के लिए परेशान है. हर हफ्ते वो कई किलोमीटर पैदल चलकर सरकारी राशन की दुकान पर जाती, लेकिन उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है. भले ही वो पिछले 25 सालों से सेवातंद गांव में रह रही है लेकिन पिछले दो सालों से उसका अंत्योदय कार्ड बेकार हो गया है.

    एक और पड़ोसी रामलता गोबर से भरे हुए बरामदे पर बैठी है. ये वही जगह है जहां स्थानीय प्रशासन के आने तक बुधनी के मृत शरीर को घंटो तक रखा गया था. वो कहती है, "राशन लेने के लिए जाओ तो हर बार निराशा हाथ लगती है".

    बुधनी को मिलाकर पिछले 10 महीनों में कम से कम 12 लोगों की कथित रूप से भुखमरी से मौत हुई है. लेकिन राघुबर दास की सरकार ये मानने के लिए तैयार नहीं है कि राज्य में भुखमरी से मौतें हो रही हैं.

    रामगढ़ जिले की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. ये इलाका रांची-हज़ारीबाग एक्सप्रेस-वे से सिर्फ एक किलोमीटर की दूरी पर है. जिले के मंडु ब्लॉक में एक घना जंगल है और यही पर कुंडरिया सेटलमेंट के लोग भूखे बिस्तर पर जाते हैं.

    इस समाज के करीब 200 लोग यहां रहते हैं जिनमें ज्यादातर महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग हैं. यहां के पुरुष रांची और दूसरे शहरों में मजदूरी का काम करते हैं. इनके घर बांस के सूखे पत्तियों से ढके हैं. इनके पास कोई खाना नहीं है, कोई पक्का घर नहीं है और आय का कोई निश्चित जरिया नहीं है. इनके लिए जीना हर दिन संघर्ष है.

    रामगढ़ में ऐसी परिस्थिति में रहते हैं लोग


    इस साल जून में इसी इलाके के चिंतामन मल्हार की मौत हो गई थी. करीब 60 साल के मल्हार को तीन दिनों तक खाना नहीं मिला था. उनके बेटे बिदेशी मल्हार का कहना है कि उनके पिता को मौत से एक दिन पहले सड़ा-गला खाना मिला लेकिन वो उन्हें जिंदा रखने के लिए काफी नहीं था.

    मल्हार की मौत के बाद उनके पड़ोसियों को थोड़ी राहत मिली. हर परिवार को बीडियो ने 10-10 किलो चावल दिए.

    लेकिन ये राहत कुछ ही दिनों के लिए थी. बारिश के चलते सारा अनाज बर्बाद हो गया. ये अनाज एक प्लास्टिक के टेंट में रखा था. यहां के लोगों का कहना है कि उनके पास बैंक अकाउंट भी नहीं हैं. सरकारी राशन पाने वालों की लिस्ट में भी इनका नाम नहीं दिया गया है.

    खाली बर्तन, झारखंड में ये मंजर आम है


    वहीं यहां रहने वाली 20 साल मनसा ने कुपोषण के चलते अपने दो बच्चों को खो दिया. वो कहती है, "मल्हार की मौत के बाद, वे हमें राशन कार्ड के लिए नामांकित कर रहे हैं और हमें 10 किलोग्राम चावल दिया है," उम्मीद करते हुए कि अपने आखिरी जीवित बच्चे को जिंदा रखने के लिए ये पर्याप्त होगा.

    पिछले साल 28 दिसंबर को सोनपुरवा गांव में 67 साल की इतवारिया देवी की मौत भूख से हो गई. वो तीन महीने से स्थानीय डीलर से राशन पाने की कोशिश कर रही थी. परिवार को कुछ चावल मिला लेकिन इतवारिया देवी की मौत खाने से पहले ही हो गई. अब उनका बेटा घुरा विश्वकर्मा पचास हज़ार रुपये लोन लेने के बाद घर से ही राशन की दुकान चलाता है.

    इतवारिया देवी इंदिरा गांधी ओल्ड एज पेंशन योजना के तहत एक पेंशनभोगी थी. लेकिन आखिरी बार उन्हें अक्टूबर में स्थानीय प्रज्ञा केंद्र से पेंशन मिली थी. इसके बाद, जब भी वो अपनी पेंशन मांगने के लिए गई, या तो बिजली नहीं रहती थी या फिर उन्हें अगले दिन आने के लिए कह दिया जाता था. आखिरकार भूख से उनकी मौत हो गई.


    इतखोरी गांव के मल्हार को आप खाना मांगते हुए देख सकते हैं. इन्हें कई साल से पेंशन नहीं दिया गया है


    लोगों को लगता है कि सामाजिक सुरक्षा पेंशन और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लोगों का जीवन बचा लेगा. लेकिन ज्यादातर ग्रामीण और आदिवासी लोग इस पर भरोसा नहीं करते हैं उनकी शिकायत है कि भुगतान शायद ही कभी किया जाता है.

    सरकार भी मानती है कि इन योजनाओं को सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका है. झारखंड सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने न्यूज़ 18 को बताया, "राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुसार, हमें पीडीएस के तहत 86% ग्रामीण आबादी को कवर करने को कहा गया है. ये 2011 की जनगणना पर आधारित है और अनुमानित आबादी के मुताबिक इसमें 85% लोग शामिल हैं. इसका मतलब है कि बाक़ी जनसंख्या को इसके तहत कवर नहीं किया जा सका है. "

    जाति को लेकर भेदभावतखोरी गांव के लोग मीना मुसहर को याद करते हुए कहते हैं कि वो महुआ पेड़ के बगल में खड़ी हो कर खाना मांगती थी. मीना भूख से मर रही थी लेकिन ग्रामीणों को कभी एहसास नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने कभी उससे बात नहीं की थी.

    महुआ का वो पेड़ जहां मीना देवी ने आखिरी सांसे ली


    "हमने कभी मीना से बात नहीं की क्योंकि वो एक अलग जाति से थीं. वो आमतौर पर मांग कर खाना खाती थी. लेकिन हमें ही राशन नहीं मिलता है," ये कहना है शांति का. शांति ने 50,000 रुपये का कर्ज लेकर अपना घर बनाया है. वो बर्तनों में पॉलिशिंग का काम करके अपना जीवन चलाती हैं.

    इतवरिया देवी की मौत हो गई लेकिन अब उसके परिवार को राशन मिल रहा है


    शांति ने कहा, "हम इन बर्तनों को देहात में बेचते हैं. यहां तक कि हम लोग भी कुछ दिनों के लिए भूख से तड़पते रहे.'' वो मानती है कि मीना की मौत के बाद काफी संख्या में सरकारी अधिकारियों ने राशन कार्ड बनाए हैं.

    मीना की मौत को भी भुखमरी के तौर पर नहीं देखा जा रहा है. चतुरा में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की देखभाल करने वाले डॉ अरुण कुमार कहते हैं कि आदिवासी लोग ज़्यादातर जंगलों में खाते हैं और अपने जीवन को वो खतरे में डाल लेते हैं.

    सार्वजनिक स्वास्थ्य संसाधन नेटवर्क के संस्थापक सचिव डॉ                                                                                                                                                वंदना प्रसाद इसे बस एक बहाना मानती हैं. उन्होंने कहा "मैंने डॉक्टरों के साथ 25 साल बिताए हैं. ये एक बहुत ही कमजोर दावा है. यह तभी होता है जब लोग तीव्र भुखमरी से पीड़ित होते हैं और वे आम की गुटली आदि खाते हैं. फिर पोस्ट-मॉर्टम के दौरान पेट में कुछ घास दिखाता है. इससे आप भुखमरी को इनकार नहीं कर सकते हैं.''

    चतरा के डॉक्टर अरूण कुमार


    पीडीएस नेटवर्क फेल

    डॉ प्रसाद ने प्रेमानी कुंवर की मौत के मामले को भी खारिज कर दिया. दिसंबर में झारखंड के कोर्ता गांव में प्रेमानी की मौत हो गई थी. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत यहां के लोगों को आवास मिल गया है लेकिन लोग सरकारी राशन की दुकान के भरोसे लोग कितने समय तक जीवित रह सकते हैं.

    प्रेमानी कुंवर के बेटे का कहना है कि उनकी मां की मृत्यु इसलिए हो गई क्योंकि उन्हें दो महीने तक अपने पति का पेंशन नहीं मिला था और स्थानीय राशन डीलर ने उन्हें अनाज का कोटा देने से मना कर दिया था.

    प्रेमानी कुंवर का बेटा


    प्रेमानी अपने पति की दूसरी पत्नी थीं. उसका सतौला बेटा और उनकी पत्नियां पास में रहते हैं. तो क्या उन्होंने उसे कुछ खाना नहीं दिया? प्रेमानी की सौतेली बहुओं ने कहा "हम उसे खाने के लिए क्या देते जब वह हमारे पास खुद कुछ भी नहीं था"

    पीडीएस नेटवर्क (सरकारी सरकारी राशन की दुकाने) के खिलाफ बढ़ती शिकायतों को देखते हुए, राज्य के खाद्य और नागरिक आपूर्ति विभाग ने 5 मार्च को सिस्टम में सुधार पर सिफारिश जमा करने के लिए नौ सदस्यीय पैनल बनाया था. टीम को 30 अप्रैल की समयसीमा दी गई थी, लेकिन दो महीने बाद भी रिपोर्ट का इंतजार है.
    भुखमरी की चपेट में हर वर्ग 

    राज्य में हर वर्ग के लोग भुखमरी की चपेट में है. पिछले साल सिमडेगा में 11 साल की संतोषी कुमारी की मौत हो गई. धनबाद के कोयला खनन केंद्र में, भूख ने बैजनाथ रविदास ने दम तोड़ दिया. 40 साल के रविदास रिक्शा चलाते थे. उनके पांच बच्चे थे.

    रिक्बैशा चालक जनाथ रविदास का बेटा


    बैजनाथ के बेटे 14 साल के सुरज कुमार का कहना है कि उनके पिता की मौत भूख से हुई. उन्होंने कहा, ''वो भूख से मर गए. उन्होंने तीन से चार दिनों से कोई खाना नहीं खाया था. मेरे पिता की मौत के बाद मेरे भाई ने टायर मरम्मत की दुकान में काम करना शुरू किया."

    अक्टूबर में बैजनाथ की मौत के बाद, धनबाद के डिप्टी कमिश्नर ए डोडे ने परिवार को 20,000 रुपये दिए और तुरंत 50 किलो अनाज का आश्वासन दिया. उन्होंने कहा "वो (बैजनाथ) एक महीने के लिए बीमार था. उनकी मौत की रिपोर्ट के बाद, जांच की गई. ये पता चला कि वो बीमारी से मर गया, भूख नहीं है."

    आज भी बैजनाथ की विधवा पार्वती अपनी पेंशन के लिए संघर्ष करती हैं. उन्होंने कहा "मैंने नवंबर से दो बार ऑफिस गई, लेकिन आज तक कुछ भी नहीं मिला है. शायद वे मुझे जल्द ही दे देंगे."

    अब तक 12 लोगों की मौत

    भूख अब राज्य में सीरियल किलर बन गया है. हाल ही में इसकी शिकार हुई गिरिडीह जिले की सावित्री देवी है. वहीं जहां बुधनी सोरेन ने आखिरी सांस ली थी.

    जब मनाड़गढ़ी गांव में 2 जून को सावित्री देवी की मौत हुई तो ये पता चला कि उसके पास राशन कार्ड नहीं था और उन्हें पेंशन भी नहीं मिल रहा था. उनकी बहू पूर्णिमा देवी को इस बात पर विश्वास नहीं होता है कि उसकी मौत भुखमरी से नहीं हुई थी. उन्होंने कहा, "हमारे घर पर तीन दिनों तक खाना नहीं बना था. पकाने के लिए कुछ भी नहीं था.'' वो कहती है कि हमारा पेट ज्यादातर दिनों में खाली रहता है. उनके पति और सावित्री का बेटा झारखंड में काम करता था. वो मौत के बाद ही लौट सका.

    सावित्री देवी की बहु


    उसकी दुर्दशा उसके पड़ोसियों ने साझा किया. 35 साल की सोमरी देवी ने कहा, "सावित्री देवी वास्तव में भूख से मर गईं. उन्होंने शायद 15 दिनों तक कोई खाना नहीं खाया था. हम कब तक उनकी मदद कर सकते हैं?

    जब न्यूज 18 ने स्थानीय राशन डीलर नंद किशोर से बात की तो उसने कहा कि उन्हें किसी भी परिवार को अनाज न देने के बारे में कोई जानकारी नहीं है. उन्होंने कहा, "हम हमेशा हर किसी को राशन देते हैं जिसके पास राशन कार्ड हो और जिसका फिंगरप्रिंट पीओएस (बिक्री टर्मिनल प्वाइंट) की मशीन से मेल खाता हो. यदि सब कुछ फेल हो जाता है, तो हमारे पास एक रिकॉर्ड बुक भी है जहां हम राशन कार्डधारक का नाम लिखते हैं और उन्हें सामान दे देते हैं. लेकिन अगर किसी के पास कार्ड नहीं है, तो हम क्या कर सकते हैं? "

    सरकार मानने को तैयार नहीं है कि सावित्री देवी की मौत भुखमरी से हुई


    इस मामले में भी गिरिडीह के डिप्टी कमिश्नर मनोज अपने तर्क पर फंस गए. उन्होंने कहा "इसे भुखमरी की मौत कैसे कहा जा सकता है जब उसके दो बेटियों और बेटे जिदा हैं? अगर ये वास्तव में भुखमरी की मौत का मामला था, तो पूरा परिवार भूख लगी होगी."

    कुछ परिवारों को मुफ्त में एलपीजी सिलेंडर दिया जा रहा है


    शाम ढलते ही सावित्री की बहू अपने घर चली जाती है. बाहर एक ट्रक चक्कर काट रहा था. सरकारी अधिकारी कुछ परिवारों को मुफ्त में एलपीजी सिलेंडर बांट रहे थे. ट्रक का हॉर्न सुनते ही पूर्णिमा चिल्लाती है, "हॉर्न कम बजा... घर में एक दाना नहीं है... क्या पकाएं पता नहीं ? खुद को पका लें?"