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बोली केंद्र सरकार - सुप्रीम कोर्ट ही निर्णय करे समलैंगिक सेक्स अपराध के दायरे में रहे या बाहर

 


    नईदिल्ली 11 जुलाई 2018 ।।
    समलैंगिकता (होमोसेक्शुएलिटी) को अपराध के तहत लाने वाली संविधान की धारा-377 की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को फिर से बहस हो रही है. इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से राय मांगी थी. जिसके बाद आज केंद्र ने हलफनामा दायर किया. केंद्र ने धारा-377 को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर फैसला छोड़ दिया है. केंद्र ने शीर्ष अदालत से कहा कि समलैंगिक सेक्स अपराध है या नहीं, इसका फैसले वह अपने विवेक से करे ।

    सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के फैसले को पलटते हुए एक ही लिंग के दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए रिलेशन को अपराध की श्रेणी में डाल दिया था. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हुईं. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) की अगुवाई में पांच जजों की बेंच इन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है. बेंच में सीजेआई के अलावा जस्टिस रोहिंग्टन आर नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड और जस्टिस इंदू मल्होत्रा शामिल हैं.।

    कोर्ट ने कहा, 'समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने से देश का समाज एलजीबीटी समुदाय के लोगों की मदद करने को प्रेरित होगा. ये लोग भी अपनी जिंदगी उल्लास से जी सकेंगे.'।
    एक याचिकाकर्ता की वकील मनेका गुरुस्वामी ने कहा, 'लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल और ट्रांसजेंडर इस देश के संविधान और सुप्रीम कोर्ट से सुरक्षा पाने के अधिकारी हैं. धारा 377 एलजीबीटी समुदाय को समान अवसर और सहभागिता से रोकता है.'।

    सीजेआई दीपक मिश्रा ने पूछा कि क्या ऐसा कोई नियम है, जिससे समलैंगिकों या बाईसेक्शुअल को नौकरी देने से रोका जाता हो? सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर देने के बाद एलजीबीटी समुदाय के लोग बिना किसी परेशानी और संकोच के चुनावों में हिस्सा ले सकेंगे ।

    केंद्र सरकार की तरफ से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि समलैंगिकों के बीच शादी या लिव इन को लेकर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला ना दे. उन्होंने कहा कि जानवरों के साथ या रिलेटिव (सगे संबंधियों) के साथ भी सेक्स की इजाजत नहीं होनी चाहिए.

    सेक्शन 377 पर सुप्रीम कोर्ट में जिरह, याचिकाकर्ता बोले- सेक्स रुझान अलग होना क्राइम नहीं

    इसपर पांच चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) दीपक मिश्रा ने कहा, 'इस मामले को समलैंगिकता ही सीमित न रखकर वयस्कों के बीच सहमति से किए गए कार्य जैसी व्यापक बहस तक ले जाया जा सकता है.'

    वहीं, एक याचिकाकर्ता की वकील मनेका गुरुस्वामी ने कहा, 'होमोसेक्शुएलिटी किसी के करियर या ग्रोथ को प्रभावित नहीं करती. ऐसे कई लोग हैं, जो सिविल सर्विसेज एग्जाम, आईआईटी एग्जाम और ऐसे ही कई टॉप लेवल का एग्जाम पास कर चुके हैं.'।
    बेंच में शामिल जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, 'हम यौन व्यवहारों के बारे में नहीं कह रहे. हम ये चाहते हैं कि अगर दो गे मरीन ड्राइव पर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर टहल रहे हैं तो उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए.'

    मंगलवार की बहस में कोर्ट में किसने क्या कहा?

     याचिकाकर्ताओं में शामिल अरविंद दातार ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति का यौन रुझान अलग है. तो इसे अपराध नहीं कहा जा सकता. इसे प्रकृति के खिलाफ नहीं कहा जा सकता.

    सीजेआई ने पूछा, 'अगर सेक्शन-377 खत्म करते हैं, तो अगला सवाल यह होगा कि क्या वे शादी कर सकते हैं या लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हैं.' इस पर रोहतगी ने कहा, 'अगर कोई लिव-इन में है, तो लिव-इन पार्टनर को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संपत्ति पर अधिकार मिलते हैं.'

    सीजेआई ने कहा कि आज सवाल यह है कि सेक्शन-377 आपराधिक है या नहीं. पहले सेक्शन-377 को असंवैधानिक घोषित किया जाना होगा. यदि अन्य अधिकार सामने आते हैं तो उनको बाद में देखा जाएगा.

    सीजेआई दीपक मिश्रा ने कहा कि मामला केवल धारा 377 की वैधता से जुड़ा हुआ है. इसका शादी या दूसरे नागरिक अधिकारों से लेना-देना नहीं है. वह बहस दूसरी है.

    रोहतगी ने महाभारत के शिखंडी और अर्धनारीश्वर का भी उदाहरण दिया कि कैसे धारा 377 यौन नैतिकता की गलत तरह से व्याख्या करती है.

    एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 'यह केस धारा 377 तक सीमित रहना चाहिए. इसका उत्तराधिकार, शादी और संभोग के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए.'

    सेक्शन-377 की बहस में याचिकाकर्ताओं की ओर से अरविंद दातार ने कहा कि 1860 का समलैंगिकता का कोड भारत पर थोपा गया था. यह तत्कालीन ब्रिटिश संसद का इच्छा का प्रतिनिधित्व भी नहीं करता था.

    बेंच में इकलौती जज इंदु मल्होत्रा ने कहा कि समलैंगिकता केवल पुरुषों में ही नहीं जानवरों में भी देखने को मिलती है.

    पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुनवाई के दौरान कहा- 'जेंडर और सेक्सुअल पसंद को एक साथ नहीं रखा जा सकता है ।लिंग और सेक्सुअल पसंद दो अलग-अलग बातें हैं. इन दो अलग मुद्दों को एक साथ नहीं रखा जा सकता है. यह पसंद का सवाल ही नहीं है.'।

    मुकुल रोहतगी ने कहा- 'इस केस में जेंडर से कोई लेना-देना नहीं है. यौन प्रवृत्ति का मामला पसंद से भी अलग है. यह नैचुरल होती है, जो पैदा होने के साथ ही इंसान में आती है.' उन्होंने कहा, 'यौन रुझान और लिंग (जेंडर) अलग-अलग चीजें हैं. यह केस यौन प्रवृत्ति से संबंधित है.'

    पूर्व अटॉर्नी जनरल ने तर्क दिया, 'सेक्शन-377 के होने से एलजीबीटी समुदाय अपने आप को अघोषित अपराधी महसूस करता है. समाज भी इन्हें अलग नजर से देखता है. इन्हें संवैधानिक प्रावधानों से सुरक्षित महसूस करना चाहिए.'

    जानें होमोसेक्शुएलिटी या गे सेक्स की खास बातें:-

    सेक्शन-377 को अंग्रेजों ने 1862 में लागू किया था. इस कानून के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध (अननैचुरल सेक्स) को गैरकानूनी ठहराया गया है. अगर कोई महिला-पुरुष आपसी सहमति से भी अप्राकृतिक सेक्स करते हैं, तो इस सेक्शन के तहत 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.

    सहमति से अगर दो पुरुषों या महिलाओं के बीच सेक्‍स भी इस कानून के दायरे में आता है. किसी जानवर के साथ सेक्स करने को भी इस कानून के तहत उम्र कैद या 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.

    इस सेक्शन के तहत क्राइम को संज्ञेय (Cognizable) माना गया है. यानी इसमें गिरफ्तारी के लिए किसी तरह के वॉरंट की जरूरत नहीं होती. शक के आधार पर या गुप्त सूचना का हवाला देकर पुलिस इस मामले में किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है. एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समाज के लोग सेक्शन-377 को अपने मौलिक अधिकारों का हनन बताते हैं ।