Breaking News

सेना में भी हुआ प्रमोशन में खेल : एएफटी के आदेश पर रिटायरमेन्ट के 18 साल बाद हुआ प्रमोशन


    26 अगस्त 2018 ।।
    देबायन रॉय

    जब हम देश की न्याय व्यवस्था और उसमें देरी पर बात करते हैं तो हमें जजों की कमी और कोर्ट की मुश्किल प्रक्रिया पर गुस्सा आता है । लेकिन तब क्या हो जब सरकार खुद 'गलत' शपथपत्र पेश करे, ऐसे सबूत पेश करे जो सही नहीं हैं और जिसकी वजह से न्याय में देरी हो. वह भी देश के सबसे सम्माननीय संस्था यानी सेना के मामले में? 
    ताजा मामले में आर्म्ड फोर्स ट्रिब्यूनल (एएफटी) बेंच ने फैसला दिया है कि सेना ने एक आर्मी अधिकारी के साथ न सिर्फ नाइंसाफी की बल्कि साक्ष्य छिपाकर कोर्ट के साथ भी गलत किया । यह अधिकारी के पक्ष के साथ-साथ कोर्ट के साथ भी धोखा करने के समान है ।

    क्या है मामला मेजर जनरल नारंग का -

     नारंग को जनवरी 1997 में रिटायर होने के लिए कहा गया था । उनसे कहा गया था कि लेफ्टिनेंट जनरल की रैंक पर कोई वेकेंसी नहीं है. अब मेजर जनरल नारंग के रिटायरमेंट के 18 साल बाद सरकार से कहा गया है कि उन्हें लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर प्रमोट किया जाए ।

    मेजर जनरल नारंग कॉर्प्स ऑप इंजीनियर्स में कार्यरत थे. 1997 में उन्हें रिटायर होने के लिए कहा गया था । तब उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी. यह मामला बाद में एएफटी को ट्रांसफर कर दिया गया. नारंग ने दावा किया था कि कॉर्प्स में तीन रिक्तियां थीं जिनमें से एक वेकेंसी डायरेक्टर जनरल बॉर्डर रोड्स (DGBR) उपलब्ध थी । इसके अलावा वहां अन्य पदों पर भी वेकेंसी थी, इनमें डायरेक्टर जनरल नेशनल कैटेड कॉप्स (DGNCC) का पद भी शामिल था ।

    जनरल ने आगे कहा कि डीजीएनसीसी का पद पांच महीने तक खाली रखा गया और आखिर में इस पद पर उनसे जूनियर बैच के अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल बीएस मलिक को प्रमोट कर दिया गया. उन्हें तीन महीने का सर्विस एक्सटेंशन दिया गया, फिर उन्हें प्रमोट किया गया और डीजीएनसीसी के पद पर नियुक्त कर दिया गया ।

    कोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान सामने आया कि सरकार की तरफ से दाखिल किए गए शपथपत्रों में काफी गड़बड़ियां थीं ।

    ट्रिब्यूनल ने अपने ऑर्डर में कहा कि सरकार ने हाईकोर्ट में गलत शपथपत्र दाखिल किया. इसमें सरकार ने कहा था कि कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स में केवल दो रिक्तियां थीं जबकि असल में वहां तीन पद खाली थे । ट्रब्यूनल को यह भी पता चला कि एक अन्य मामले में सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट से कहा था कि असल में लेफ्टिनेंट जनरल के 56 पदों पर वेकेंसी थी जिनमें चार कार्यकारी पद थे । इस मामले में इन चार रिक्तियों को छिपाया गया और केवल 52 के बारे में जानकारी दी गई ।

    जस्टिस एमएस चौहान और लेफ्टिनेंट जनरल मुनीष सिब्बल की एएफटी बेंच ने अपने आदेश में कहा कि सरकार ने याचिकाकर्ता के साथ अन्याय तो किया ही, कोर्ट से तथ्य छिपाकर कोर्ट से भी धोखा किया है ।

    कोर्ट ने अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर प्रमोट करने के निर्देश दिए हैं. इसके साथ ही AFT ने सरकार पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है कि योग्य होने के बावजूद उन्हें गलत आधार पर प्रमोशन नहीं दिया गया ।

    इस मामले ने 90 के दशक की याद दिला दी है जब मुलायम सिंह यादव के रक्षा मंत्री रहने के दौरान सरकार पर सैन्य अधिकारियों के प्रमोशन में दखल के आरोप लगे थे । हालांकि 1997 जनरल वीके मलिक ने सेना प्रमुख की जिम्मेदारी संभाली जिसके बाद यह विवाद थम गया था ।

    शायद नहीं. 2016 के अंत में प्रमोशन में देरी का एक ऐसा ही मामला सामने आया था । आर्मी के एविएशन कॉर्प्स के एक ब्रिगेडियर को मेजर जनरल के तौर पर प्रमोट किया गया था. वह 2002 में रिटायर हो चुके थे, लेकिन उन्हें प्रमोशन रिटायरमेंट के 14 साल बाद यानी 2016 में मिला । इसके लिए उन्हें लम्बी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी ।

    ब्रिगेडियर (अब मेजर जनरल) एनजेएस सिद्धू चाहते थे कि उन्हें आर्मी एविएशन कॉर्प्स में मेजर जनरल के खाली पद पर पदोन्नति के लिए कंसिडर किया जाए । यह भी 1997 का मामला है । हालांकि सेना ने कहा था कि यह वेकेंसी अनिर्दिष्ट है और आर्मी एविएशन के प्रमुख के पद पर वह किसी और ब्रांच के अधिकारी को पदस्थ करना चाहती है । सेना ने सिद्धू को प्रमोशन के लिए कंसिडर किए बिना ही उनसे इस्तीफा ले लिया था ।

    हालांकि हाईकोर्ट में जस्टिस स्वतनतर और एसएस सरोन ने 2002 में सेना के फैसले को खारिज करते हुए सरकार को निर्देश दिए थे कि सिद्धू के प्रमोशन पर विचार किया जाए 


    रक्षा मंत्रालय ने इस पर अपील की और सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्टे लगा दिया. आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था ।

    सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक प्रमोशन बोर्ड बनाया गया जिसने सिद्धू के प्रमोशन का अप्रूवल नहीं दिया. इस रिजेक्शन के खिलाफ एएफटी में अपील की गई ।

    जस्टिस सुरिंदर सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट जनरल डीएस सिद्धू की बेंच ने इस मामले में सेना के मिलिट्री सेक्रेटरी ब्रांच को जमकर फटकार लगाई. ब्रांच ने दलील दी थी कि कम्पैरेटिव बैच मेरिट के चलते अधिकारी को अगली रैंक में प्रमोट नहीं किया जा सकता । कोर्ट ने कहा कि उस वक्त ऐसा कोई बैच नहीं था और याचिकाकर्ता इकलौते उम्मीदवार थे ।

    एएफटी ने कहा कि उच्च स्तर पर ऐसे तरीके निकाले गए जिससे सच को छुपाया जा सके. कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामले न्याय व्यवस्था की अंतरात्मा को झकझोरते हैं और गलत नीयत के लोगों को गैर कानूनी कदम उठाने के लिए प्रेरित करते हैं. अब सेना ने रिटायरमेंट के 14 साल बाद अधिकारी को मेजर जनरल के तौर पर पदोन्नत किया है ।

    ऐसा ही एक मामला मेजर जनरल वीके शर्मा का है जिन्हें 30 अप्रैल 1996 को रिटायर होना था.हालांकि यदि उन्हें अगली रैंक में प्रमोट किया जाता तो उन्हें दो साल की सेवा और मिल जाती और वह 30 अप्रैल 1998 को रिटायर होते. उन्हें पदोन्नत नहीं करने के पीछे सेना ने वजह दी कि 30 अप्रैल 1996 को लेफ्टिनेंट जनरल का कोई पद खाली नहीं था.

    जब यह मामला उठाया गया तो एएफटी के जज ने कहा कि 30 अप्रैल 1996 को लेफ्टिनेंट जनरल का एक पद खाली था जिसमें शर्मा को अपॉइंट नहीं किया गया. कोर्ट ने सेना को निर्देश दिया कि वह मेजर जनरल शर्मा को 30 अप्रैल 1996 को लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर नियुक्ति किया गया माने और उन्हें वैसे ही ट्रीट करे.

    इस फैसले के खिलाफ सेना ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की. हालांकि कोर्ट ने इस अपील को खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि शर्मा का मामला सिर्फ प्रपोजल को सिर्फ प्रधानमंत्री की अनुमति का मामला नहीं था. प्रस्ताव को पीएम की अनुमति के बाद रक्षा मंत्रालय की तरफ से प्रमोशन ऑर्डर भी जारी हो चुका था.

    कोर्ट ने पाया कि शर्मा के मामले में पूरी प्रोसेस फॉलो की गई थी. उनका नाम आर्मी हेडक्वार्टर ने रिकमेंड किया था. रक्षा मंत्रालय ने उनका नाम अप्रूव किया था. प्रधानमंत्री/रक्षा मंत्री ने उनके नाम पर सहमति दे दी थी और इसलिए सेना को निर्देश दिया गया कि उन्हें लेफ्टिनेंट जनरल का पद दिया जाए ।