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बनारस में गांधी का वह पहला भाषण, जिसमें राजे-महाराजों की धज्जियां उड़ा दीं

 बनारस में गांधी का वह पहला भाषण, जिसमें राजे-महाराजों की धज्जियां उड़ा दीं
Sanjay Srivastava




24 सितम्बर 2018 ।।
(20वीं शताब्दी के सबसे निर्मम और हिंसक दौर में, जब दुनिया दो दो विश्व युद्ध की त्रासदियों से गुजर रहा था । भारत में एक महात्मा ने सत्य और अहिंसा को लोगों के मन में पुन:स्थापित किया । इस महात्मा को आगे चलकर भारत ने अपना राष्ट्रपिता माना और दुनिया ने उसकी तुलना ईसा मसीह और महात्मा बुद्ध से की. इस साल 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी को इस दुनिया में आए 150वां साल होने वाले है । आइये आप को बनारस में दीये गये पहले भाषण  बताते है जिसने तूफान ला दिया । 
गांधी जी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत आ गए थे. वो अब अपने देश के लिए आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेना चाहते थे. लेकिन उन दिनों वो कांग्रेस के ऐसे नेताओं में नहीं थे, जिसकी पहचान बन चुकी थी. जब बनारस में उन्होंने सही मायनों में अपना पहला भाषण दिया तो लोग वाह वाह करने लगे. इसमें उन्होंने राजे-महाराजों की धज्जियां उड़ाईं तो उग्र क्रांतिकारियों का समर्थन भी किया ।

सभी भाषण अंग्रेजी में हो रहे थे , गांधी जी इससे  हैरान थे ।वो लज्जित भी थे कि कोई भारतीय भाषाओं में सार्वजनिक मंचों से बोलता क्यों नहीं. जब गांधीजी भाषण देने के लिए खड़े हुए, तो उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू किया. शायद भारत में किसी सार्वजनिक मंच से विधिवत तौर पर ये उनका पहला भाषण था. उनके शब्द अपेक्षा के विपरीत कठोर थे.

राबर्ट पेन की किताब  द लाइफ एंड द डेथ ऑफ महात्मा गांधी  के अनुसार गांधीजी ने कहा- वो कोई भाषण तैयार करके नहीं बोल रहे हैं, वास्तव में ऐसे भाषण की जरूरत भी नहीं है.

गांधीजी ने बनारस के अपने भाषण में जो बातें कहीं वो राजे महाराजों के लिए चुभने वाली थीं


काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों ओर इतनी गंदगी क्यों है
इस भाषण में पहले तो उन्होंने बनारस के बीचों बीच स्थित प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर के चारों ओर फैली गंदगी के बारे में कहा, जब किसी अजनबी को अचानक इस मंदिर में लाकर छोड़ दिया जाए तो वो हम हिंदुूओं के बारे में क्या सोचेगा, क्यो वो हमारी भर्त्सना नहीं करेगा.

उन्होंने कहा, एक हिंदू होने के नाते मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या हमारे पवित्र मंदिर की ओर जाने वाली गलियां उतनी ही गंदी होनी चाहिए, जितनी वो हैं. मंदिर के आसपास बेतरतीबी से बने घर हैं, रास्ते संकरे और खराब हैं. जब हमारे सबसे पवित्र स्थान मंदिरों के रखरखाव का ये हाल है तो हमारी सरकार का क्या होगा. अंग्रेज जब देश छोड़कर चले जाएंगे, तब क्या हमारे मंदिर स्वच्छता, पवित्रता और शांति का घर बनेंगे.


उन्होंने कहा जो लोग महल बनाते हैं या ऐशोआराम से जीते हैं दरअसल वो किसानों की मेहनत का शोषण करते हैं


राजे महाराजों पर व्यंग्य
गांधी जी यहीं नहीं रुके, वो मंच पर जवाहरातों से लदे महाराजाओं और उनकी अकूत दौलत पर व्यंग्य करने लगे. उन्होंने तीखे व्यंग्य करते हुए कहा, आखिर उनकी सारी दौलत गरीबों के खून से पैदा की गई है.
उन्होंने कहा, मैं जब भी आभूषणों से लदे भद्र लोगों और करोड़ों गरीबों की तुलना करता हूं तो इन भद्र लोगों के लिए मेरे दिल से यही आवाज आती है, जब तक आप लोग अपनी इन सजी धजी पोशाकों और जवाहरातों को उतारकर नहीं फेकेंगे तब तक भारत का उद्धार संभव ही नहीं है. इसलिए आप लोगों को अपनी इस संपत्ति को देशवासियों के हवाले कर देना चाहिए. मुझे विश्वास है कि सम्राट और लार्ड हार्डिंग के प्रति अपनी वफादारी दर्शाने के लिए इन परिधानों और हीरे-मोतियों से भरे संदूकों को खोलने की कोई जरूरत नहीं है. जब मैं किसी भव्य महल के निर्माण के बारे में सुनता हूं, तो मेरा मन जलने लगता है, क्योंकि वो सारा धन किसानों का होता है."

राजा-महाराजा एक दूसरे का मुंह देख रहे थे
गांधीजी के भाषण से मंच पर बैठे राजा-महाराजा एक दूसरे का मुंह देख रहे थे. वातावरण तनावपूर्ण हो चुका था. तीन दिनों के धारा प्रवाह भाषणों में कोई भी इस तरह नहीं बोला था. कुछ विद्यार्थियों ने गांधी को और प्रोत्साहन देने के लिए शोर मचाना शुरू कर दिया. गांधी भली भांति जानते थे कि वो क्या कर रहे हैं. आखिर उन्हें भाषण देने और श्रोताओं को अपने वश में रखने का लंबा अनुभव था.


गांधीजी ने क्रांतिकारियों के प्रति भी हमदर्दी जाहिर की. हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि हिंसा का रास्ता सही नहीं है


बम फेंकने वालों से सहानुभूति
उन्होंने लार्ड हार्डिंग की जबरदस्त सुरक्षा पर सवाल उठाते हुए उन पर बम फेंकने वालों से भी सहानुभूति भी जाहिर की. उन्होंने कहा, आखिर वाइसराय शक की दीवार से क्यों घिरे रहते हैं. क्या इस प्रकार मर मर के जीने से बेहतर मर जाना नहीं है. ये पूछते हुए गांधी ये इशारा भी कर देते थे कि जिंदा रहने की अपेक्षा वाइसराय को मरकर ज्यादा फायदा हो सकता है. सभा भवन में ज्यों-ज्यों तनाव बढ़ रहा था, गांधी का भाषण एक मुक्त चक्र की भांति घूम रहा था.

मैं खुद अराजकवादी हूं
उन्होंने कहा, हम चिढ़ सकते हैं, क्रोधित हो सकते हैं, नाराज हो सकते हैं लेकिन ये नहीं भूल सकते कि भारत की अधीर परिस्थितियों ने अराजकतावादियों की पूरी फौज तैयार कर दी है. मैं खुद अराजकवादी हूं पर दूसरे किस्म का. मैं अराजकवादियों का उनके देश प्रेम के लिए सम्मान करता हूं. उनकी बहादुरी और देश के लिए अपने प्राण देने की भावना का आदर करता हूं. मैं ये घोषणा करने से जरा भी नहीं हिचकूंगा कि अंग्रेजों को यहां से भगा देना चाहिए और अपने इस विश्वास के लिए अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटूंगा. हमें ईश्वर को छोड़कर किसी से डरने की जरूरत नहीं है, न महाराजाओं से, न वाइसरायों से , यहां तक की खुद सम्राट से भी नहीं.


फिर कोलाहल शुरू हो गया
इस दौरान मंच पर बैठीं कांग्रेस की बड़ी नेता एनी बेसेंट की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उन्हें मंच पर अपने पड़ोसियों से कानाफूसी करते देखा जा सकता था. सभाध्यक्ष दरभंगा के महाराजा भी परेशान हो रहे थे. अचानक श्रीमती बेसेंट के शब्द सुनाई पड़े, बस बहुत हो गया. तब गांधी उनकी ओर मुड़े और कहा कि अगर श्रीमती बेसेंट को लगता है कि गांधी भारत और साम्राज्य की अवहेलना कर रहे हैं तो वो और नहीं बोलेंगे. इस सबके बीच कोलाहल शुरू हो गया. कुछ लोग चाहते थे कि गांधीजी भाषण जारी रखें और कुछ चाहते थे कि वो सभा से चले जाएं.

गांधीजी का रंग ही जम गया
इस सारे हुड़दंग के बीच गांधीजी अडिग थे कि वो तभी जाएंगे जब सभाध्यक्ष उनसे ऐसा करने के लिए कहेंगे. अचानक दरभंगा के महाराजा उठे और सभा छोड़कर चले गए. सभा खत्म हो गई. श्रोताओं में अधिकांश छात्र थे और उन सभी लोगों के लिए गांधी का भाषण यादगार और उत्तेजक था. उसके बाद तो गांधीजी रंग ही जम गया ।
(साभार न्यूज 18)