गोरखपुर : पांचवी मोहर्रम का जंजीरी मातमी जुलूस -- ना पूछो वक्त की इन बेजबान किताबों से, जब सुनो अजान तो समझो हुसैन जिंदा है
जब सुनो अजान तो समझो हुसैन जिंदा है
अपनी शहादत से सब्रो-इन्सानियत का पैगाम दे गये हुसैन
पांचवी मोहर्रम का जंजीरी मातमी जुलूस
अमित कुमार की रिपोर्ट
गोरखपुर 16 सितम्बर 2018 ।। इतिहास गवाह है कि जालिम यजीद सारे जुल्म करने के बाद भी अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सका और हार गया लेकिन इमाम हुसैन (अ) जान दे के भी जीत गए क्योंकि वह जुल्म के आगे नहीं झुके और इंसानियत को बचा लिया। इस्लाम अमन का मजहब है जो यह सिखाता है कि इंसानियत से बढ़कर कुछ भी नहीं अगर आप एक अच्छे इंसान नहीं तो आप एक अच्छे मुसलमान भी नहीं बन सकते यह बात नफीस रिजवी एडवोकेट ने पांचवी मोहर्रम को खूनीपुर से निकलने वाले मातमी जुलूस की मजलिस में कही। उन्होंने कहा कि दुनिया के सारे कैलेंडर नए साल के साथ खुशियों का पैगाम लेकर आते हैं लेकिन सिर्फ एक इस्लामी कैलेंडर ऐसा है जो नए साल के साथ गम का पैगाम लेकर आता है । आज से तकरीबन 1400 साल पहले 61 हिजरी के मोहर्रम महीने में पैगंबर हजरत मोहम्मद (स) के नवासे इमाम हुसैन को उनके 72 साथियों के साथ बेदर्दी से करबला (इराक) में जालिम यजीदी फौज द्वारा शहीद कर दिया था। मुहर्रम में उसी शहादत की याद मनाने का महीना है। नफीस रिजवी ने कहा कि जब कभी हम दुनिया में आतंकवाद भ्रष्टाचार और जुल्म देखें और अपने आप को अकेला महसूस करें तो कर्बला के पैगाम को याद करें तो हमें याद दिलाता है कि अगर जुल्म के खिलाफ मुकाबले में अकेले हो या तादाद में कम हो तो थक कर घर में ना बैठ जाना सच्चाई की राह में अगर कदम आगे बढ़ आओगे तो याद रखो कि जीत हमेशा सच्चाई की ही होगी फिर चाहे उस सच्चाई के लिए तुम्हें अपनी जान क्यों ना देनी पड़े इमाम हुसैन ने कहां है कि जुल्म के खिलाफ जितनी देर से आवाज उठाओगे कुर्बानी उतनी ही बड़ी देनी पड़ेगी। मजलिस के बाद या हुसैन की सदाओं के साथ पांच मोहर्रम का जंजीरी मातमी जुलूस अपनी पुरानी रवायतों के अनुसार निकला।
"रसूल हम तेरे प्यारों का ग़म मनाते हैं, हर एक हाल में फर्शे अज़ा सजाते हैं" नफी़स हल्लौरी के इसी नौहे पर मातम करते हुए हल्लौर एसोसिएशन के बैनर तले अपनी पुरानी परम्परा को कायम रखते ख़ूनीपुर चौक पहुंचा । इससे पहले महिलाओं द्वारा मजलिस व माताम किया गया। जूलूस के इंतेजार में लोग सड़को, गलीयों और छतों पर जंजीर और कमा (छोटी तलवार) का मातमी जुलूस देखने के लिए जमें रहे। ज़जीरी मातम और कमां का मातम देख कर अकीदत मन्दों की आखें नम हो गयी।
हर तरफ या हुसैन, या हुसैन की सदा गूज़ रही थी। अंजुमन हैदरी हल्लौर के मातमदारो के नौहा मर्सिया की सदाओं से लोगों के ज़हनों में कर्बला की याद ताज़ा हो गई।
मातमी जुलूस खूनीपुर चौराहे से अंजुमन इस्लामिया पहुचा तो वहां हल्लौर से आये हानी हल्लौरी ने इमाम हुसैन की शहादत पर प्रकाश डालते हुए अल्लामा इक़बाल का शेर " अली का ज़ेबोजैन जिंदा है फातिमा का चैन जिंदा है, ना पूछो वक्त की इन बेजबान किताबों से, जब सुनो अजान तो समझो हुसैन जिंदा है" पेश किया। हुसैन शहीद तो हो गये लेकिन दुनिया को सब्रो-इन्सानियत का पैगाम दे गये और यह बता गये की इस्लाम सब्र व शहादत से फैला इसके लिए कुर्बानियां दी गयीं।
जुलूस में हल्लौर से आये नौहाखां नफीस सैयद, कमियाब बब्लू, मोहम्मद हैदर शब्लू, रज़ा हल्लौरी, अब्बास हल्लौरी, अज़ीम हैदर ने अपने कलाम से माहौल को गमगीन बना दिया। जुलूस में कस्बा हल्लौर से आये अंजुमन के युवाओं और बच्चों ने कमां और जंजीरों का मातम किया। मातमी जुलूस अंजुमन इस्लामिया से होता हुआ नखास चौक से रेती चौक होते हुए गीताप्रेस रोड स्थित इमामबाड़ा रानी अशरफुन निशा खानम (इमामबाड़ा आगा साहेबान) मे पहुंचा जहां हल्लौर एसोसिएशन की जानिब से मजलिसे हुई। जुलूस के समापन पर एसोसिएशन के अध्यक्ष ई0 कैसर रिजवी ने इमामबाड़ा आगा सहेबान के निगरां आगा अली मोहम्मद , शासन-प्रशासन, मीडियाकर्मीयों तथा जूलूस में शामिल आम नागरिकों को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया अदा करते हुए समापन की घोषणा किया। जुलूस में राशिद रिज़वी, आसिफ़ रिज़वी, आरिफ रिज़वी, जव्वाद रिज़वी, मोजिज़ा रिज़वी, अरमान हैदर, मोहम्मद, औन रिज़वी, जौन रिज़वी, सुहेल रिज़वी जीडीए वाले, रिज़वान रिज़वी, सुलतान रिज़वी, तनवीर रिज़वी, अहमर रिज़वी एडवोकेट, दिलशाद रिज़वी एडवोकेट एवं कमाल असगर का विशेष सहयोग रहा।