क्या बलिया लोकसभा सीट पर 1984 की होगी पुनरावृत्ति : ब्राह्मण दलित मुस्लिम और यादव का एक साथ आना खिलायेगा कोई गुल,चंद्रशेखर की गैर मौजूदगी में बलिया में हो रहा जाति एवं संप्रदायवाद का लिटमस टेस्ट
क्या बलिया लोकसभा सीट पर 1984 की होगी पुनरावृत्ति : ब्राह्मण दलित मुस्लिम और यादव का एक साथ आना खिलायेगा कोई गुल ?चंद्रशेखर की गैर मौजूदगी में बलिया में हो रहा जाति एवं संप्रदायवाद का लिटमस टेस्ट
मधुसूदन सिंह अजित ओझा की रिपोर्ट
बलिया 13 मई 2019 ।। जातिवाद ,सम्प्रदायवाद से पूरा देश झुलस रहा है । देश की आजादी से भी पहले आजादी का स्वाद चखने वाले बलिया जनपद में यह जहर पहले तो नही था लेकिन धीरे धीरे कुछ वर्षों से यहां भी फैलता जा रहा है । आजादी के बाद से आजतक कई प्रयासों के बाद भी अपना लोकसभा में परचम लहराने से वंचित यहां का ब्राह्मण समुदाय एक बार फिर अपने राजनैतिक अस्तित्व के लिये जोर लगा रहा है । वैसे तो बलिया हमेशा ही जातिवाद सम्प्रदायवाद से परे रहकर अपना रहनुमा चुनती आयी है लेकिन विगत वर्षों के जातीय संघर्षो को देखते हुए आज की परिस्थिति में यह कहना मुश्किल लग रहा है कि इस चुनाव में जातीय समीकरण हावी नही होंगे ? 1984 के बाद पहली बार जाति धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठकर कहे या मोदी भय के आधार पर ब्राह्मण दलित मुस्लिम और यादव का समीकरण , राष्ट्रवाद के एजेंडे पर वोट मांग रही भाजपा को टक्कर देता नजर आ रहा है । अब देखना यह है कि क्या यह चुनाव 1984 की पुनरावृत्ति करता है या नही ? हां बलिया की तासीर के सम्बंध में यह कहा जा सकता है --
गर्म मौसम में घड़े का ठंडा पानी ,
कुछ और नही संघर्षो की कहानी
कहानी उस मिट्टी की जिसे गुत्था गया,
पीटा गया और पकाया गया ।।
यूं ही नही रोशन हुआ चारो ओर नाम मेरा
जल रही है आग जो मैंने अपने सीने में जलायी थी
दिनरात सहेजकर रखी है उस आग की जलन
उसी जलन में किये मेरे संघर्ष ने मुझे मेरी पहचान दिलायी थी ।।
वैसे तो आजादी के बाद से ही बलिया लोकसभा की सीट अपने अल्हड़ मिजाज के चलते समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बटोरती रही हैं, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में इसका महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। कारण तकरीबन चार दशक बाद प्रखर समाजवादी और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की परछाई से परे बलिया के मतदाता इस बार अपने रहनुमा का चुनाव करने जा रहे हैं। जिसमें जातिवाद और संप्रदायवाद का लिटमस टेस्ट होगा। लेकिन यह भी हकीकत है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बलिया की बैरागी जनता ने कभी किसी वाद को स्वयं पर हावी होने नहीं दिया। यही कारण रहा कि यहाँ लंबे अरसे तक पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का वर्चस्व बरकरार रहा और सांप्रदायिक ताकतों को यहाँ मुँह की खानी पड़ी।
बहरहाल, अतीत के पन्नों पर दृष्टिपात करें तो आजादी की बाद वर्ष उन्नीस सौ बावन में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव के दौरान बलिया जिले में दो लोकसभा सीटें समाहित थी, जिनमें पहली बलिया पूर्वी तथा दूसरी गाजीपुर पूर्वी के नाम से जानी जाती थी। यह यहाँ के लोगों के अल्हड़ मिजाज की ही पहचान थी कि आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली कांग्रेस पार्टी को उन्नीस सौ बावन के चुनाव में पहली बार हार का सामना करना पड़ा और कांग्रेस के टिकट से वंचित मुरली मनोहर को बलिया वासियों ने अपना रहनुमा चुना। इस चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति इस कदर हुई कि उसे तीसरे स्थान पर जाना पड़ा जबकि दूसरे स्थान पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के राम नगीना मिश्र रहे। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि बलिया वासियों ने पहली ही बार अपने मिजाज और बागी तेवर की झलक दिखाते हुए अपने नुमाइंदे का चुनाव किया था। उसके बाद 1957 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने राधा मोहन सिंह के सहारे बलिया में अपना झंडा बुलंद किया। जिसे उन्नीस सौ बासठ में मुरली मनोहर ने बदस्तूर बनाये रखा। इस दरम्यान हुए परिसीमन ने बलिया पूर्वी लोकसभा सीट का नक्शा कुछ इस कदर बदला कि यह सीट पूर्णतया बलिया जिले के अंदर आ गयी। उसके बाद सन 1967 और 1971 में हुए लोक सभा चुनाव में बलिया के लोगों की लोकसभा में नुमाइंदगी चंद्रिका प्रसाद ने की। उन्नीस सौ बावन से लगायत 1971 तक लोकसभा में चार बार कायस्थ बिरादरी के उम्मीदवार ने बलिया का नेतृत्व किया जबकि दो बार ठाकुर प्रत्याशी विजयी रहा। उस दौर में जाति और संप्रदायवाद रुपी विष बेल से बलिया के लोग बेपरवाह थे। इसका प्रमुख कारण यह भी था कि सामाजिक रूप से बलिया का आंतरिक ढांचा कुछ इस कदर मजबूत था कि उसके आगे कोई भी वाद प्रभावहीन हो जाता था।वर्ष उन्नीस सौ सतहत्तर में जब बलिया की चुनावी राजनीति में प्रखर समाजवादी चंद्रशेखर का आगमन हुआ तो पहली बार उन्होंने भारतीय लोकदल के टिकट पर सियासी अखाड़े में अपने फन का प्रदर्शन किया और एक बार जब चंदशेखर के रूप में यहां समाजवादी परचम लहराया तो वर्ष उन्नीस सौ चौरासी को छोड़कर सन् दो हजार चार तक या यूँ कहें कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के जीवन काल तक बदस्तूर रहा तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि इस दौरान चंद्रशेखर ने कई दल बदले लेकिन विचारधारा वही रही। अगर अपवाद की बात करें तो वर्ष उन्नीस सौ चौरासी में तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं आयरन लेडी के नाम से मशहूर श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजे सहानुभूति की लहर में जगन्नाथ चौधरी ने चंद्रशेखर को भले ही पटकनी दी, लेकिन वह सिलसिला बरकरार नहीं रह सका। हालांकि इस चुनाव में जगन्नाथ की जीत ने तब ब्राह्मण दलित मुस्लिम और यादव बिरादरी के वोटरों ने अहम भूमिका अदा की थी। काबिले गौर होकि उस समय दलित मुस्लिम और ब्राह्मण कांग्रेस के परंपरागत वोटर हुआ करते थे लेकिन जातियता का यह तिलिस्म उन्नीस सौ नवासी के लोकसभा चुनावों में बलिया में पूरी तरह धराशायी हो गया। तब जनता पार्टी के विघटन के उपरांत बने जनता दल के टिकट पर चंद्रशेखर ने वापसी करते हुए पुनः बलिया में समाजवादी परचम लहराया लेकिन दुर्भाग्य रहा कि दो वर्ष के बाद ही देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा और उन्नीस सौ इक्यानवे के चुनाव में चंद्रशेखर ने पुनः जनता पार्टी के सिंबल पर बलिया से जीत हासिल की। उसके बाद उन्नीस सौ छानबे में समता पार्टी और वर्ष उन्नीस सौ अठानवे से लगाये दो हजार चार तक के लोकसभा चुनावों में समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) के टिकट पर चुनाव जीतते रहे।
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के मरणोपरांत उनकी विरासत को दो हज़ार सात में उनके कनिष्ठ पुत्र नीरज शेखर ने बखूबी संभाला, लेकिन इसके लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी का सहारा लिया और उपचुनाव में विजयी रहे। इसके उपरांत वर्ष दो हजार नौ में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भी नीरज को बलिया की जनता ने जाति धर्म व संप्रदाय से परे हटकर अपना प्रतिनिधि बनाया लेकिन वर्ष दो हजार चौदह में चली मोदी लहर की सुनामी में समाजवादियों का यह किला धराशाही हो गया । तब भारतीय जनता पार्टी के नेता भरत सिंह ( भरत सिंह को सक्रिय राजनीति में लाकर पहली बार विधायक बनाने वाले स्व चन्द्रशेखर जी ही थे )ने पहली बार बलिया में भगवा का परचम लहराया। भाजपा प्रत्याशी की जीत में इस चर्चा को बल दिया कि क्या चंद्रशेखर की गैरमौजूदगी बलिया जाति व धर्म वाद की ओर अग्रसर हो रहा है? शायद इसका उत्तर आना अभी बाकी है,लेकिन वर्ष दो हजार उन्नीस यानि वर्तमान में हो रहे लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा टिकट बँटवारे में किया गया मंथन और जातीय आधार पर उम्मीदवारों का चयन तो कम से कम यही इशारा कर रहा है कि बलिया के मिजाज़ में अब धीरे धीरे परिवर्तन होने लगा। तभी तो भारतीय जनता पार्टी ने भले ही अपने निवर्तमान सांसद भरत सिंह का टिकट काट दिया लेकिन बिरादरी की अहमियत को बरकरार रखते हुए पार्टी ने किसान मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं भदोही के सांसद वीरेंद्र सिंह मस्त को बलिया से उम्मीदवार बनाए। शायद पार्टी की यह सोच रही हो कि लंबे अरसे तक समाजवादी विचारधारा के पोषक रहे एवं देश के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की इस सीट पर ठाकुर बिरादरी ही जीत का परचम लहरा सकती है। लेकिन समाजवादी पार्टी ने भाजपा से दो कदम आगे जाते हुए पहले जाति आधार पर बकायदा सर्वे कराया और उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री के पुत्र एवं राज्यसभा सांसद नीरज शेखर को किनारे करते हुये पूर्व विधायक सनातन पाण्डेय को टिकट थमा दिया। पार्टी के थिंक टैंक का यह मानना था कि बलिया लोकसभा क्षेत्र में ठाकुर और ब्राह्मण बिरादरी के मतदाता कमोबेश बराबर हैं। ऐसे में विनिंग कॉम्बिनेशन के लिए जरूरी है कि उस बिरादरी के उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाये जो प्रतिपक्षी के उम्मीदवार से अलग बिरादरी का हो। सभी समीकरणों को टटोलने के उपरांत समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सनातन के नाम का फतवा जारी कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं कि जाति आधार पर सपा ने कमज़ोर कार्ड खेला है लेकिन बलिया के मिजाज को देखते हुए अभी इसके बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगा।
बता दें कि वर्ष उन्नीस सौ बावन में पहली बार हुए लोकसभा चुनाव में बलिया लोकसभा सीट से राम नगीना मिश्र के रूप में ब्राह्मण प्रत्याशी मैदान में था लेकिन उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी उसके बाद लंबे अरसे तक मैदान खाली रहा और वर्ष 1998 तथा निन्यानवे में रामकृष्ण मिश्र उर्फ गोपाल जी ने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चंद्रशेखर को चुनौती देने की असफल कोशिश की। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के देहांत के उपरांत 2007 में हुए उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी की टिकट पर गोरखपुर के विनय शंकर तिवारी ने अपनी किस्मत आजमाई लेकिन उन्हें भी सफलता हाथ नहीं लगी। इसके बाद वर्ष दो हजार चौदह के लोकसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर वीरेंद्र कुमार पाठक उर्फ टुन्न जी ने चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें भी मुँह की खानी पड़ी। आजादी के बाद से हुए तमाम लोकसभा चुनावों में समय समय पर ब्राह्मण बिरादरी के नेताओं ने बलिया लोकसभा से अपनी किस्मत आजमाई लेकिन कभी किसी को सफलता हाथ नहीं लगी। शायद इसी बात को सपा की थिंक टैंक ने गंभीरता से लिया और उसने सनातन पांडे पर दांव लगाने का जोखिम उठाया है। लेकिन देखना यह रोचक होगा कि आने वाले 19 मई को बलिया के मतदाता क्या अखिलेश की सोच को अमली जामा पहनाते हैं या फिर एक बार फिर भगवा के रंग में रंगने को तैयार होते हैं। इस सस्पेंस से पर्दा तो शायद पूरी तरह 23 मई के बाद ही उठ पाये, लेकिन बलिया वासियों का अल्हड़ मिजाज राजनीतिक दलों को अपना संदेश अभी से देने लगा है। जिसकी अनुकूल उनके चुनाव प्रचार के दौरान भी सुनाई दे रही।
हालांकि इस बार बलिया लोकसभा सीट में कुल 1768271 मतदाता हैं, जिनमें 973384 पुरुष और 794887 महिलाएं शामिल हैं। इसके बनिस्पति, वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के विजयी उम्मीदवार भरत सिंह को 359758 यानी कुल पड़े मतों का अड़तीस पॉइंट एक आठ प्रतिशत वोट मिला था जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी सपा के नीरज शेखर को 220324 मत प्राप्त हुए थे। लेकिन तब बसपा के साथ साथ क्षेत्रीय पार्टी कौमी एकता दल ने भी बलिया लोकसभा में अपना उम्मीदवार उतारा था। जिन्होंने क्रमश 141684 तथा 163943 मत प्राप्त कर भारतीय जनता पार्टी की राह आसान की थी। इसके अलावा कांग्रेस की उम्मीदवार सुधार राय ने भी 13501 मध्य प्राप्त किया था, लेकिन इस बार हालात कुछ अलग नज़र आ रहे हैं बसपा के साथ सपा का गठबंधन है, जबकि कौमी एकता दल का पहले ही बसपा में विलय हो चुका है । साथ ही यहाँ काँग्रेस गठबंधन के उम्मीदवार का पर्चा खारिज़ होने से लड़ाई अब सीधे भाजपा और गठबंधन के बीच हो गई है। यानी बलिया के वोटरों को अपने अल्हड़ मिजाज़ के मुताबिक मस्त और सनातन के बीच किसी एक का चुनाव करना पड़ेगा। जिसका परिणाम 23 मई को सामने आएगा।
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