बलिया : पर्यावरण दिवस (5 जून)पर विशेष- सामाजिक सांस्कृतिक प्रदूषण भी मानव समाज के लिए बेहद घातक-डा० गणेश
पर्यावरण दिवस (5 जून)पर विशेष- सामाजिक सांस्कृतिक प्रदूषण भी मानव समाज के लिए बेहद घातक-डा० गणेश
डॉ सुनील ओझा
बलिया 4 जून 2019 ।।
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य पर्यावरणविद् डा० गणेश.कुमार पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि यह बात सोचकर अजीब लग रहा होगा कि भला मानव समाज के लिए सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण कैसे घातक साबित हो सकता है। किन्तु यह सत्य है यह सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण प्राकृतिक कारकों में हो रहे प्रदूषण से कहीं अधिक घातक सिध्द हो रहा है।
हम जानते हैं कि पर्यावरण के दो आयाम होते हैं- प्राकृतिक पर्यावरण एवं सामाजिक- सांस्कृतिक पर्यावरण। जिस तरह प्राकृतिक पर्यावरण के कारकों का अनियंत्रत एवं अनियोजित दोहन एवं शोषण से तथा औद्योगिकीकरण, नगरीयकरण , जनसंख्या वृद्धि तथा मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन से समाप्ति हो रही है और उनमें प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया है कि मानव के लिए विशेष रूप से घातक सिद्ध हो रहा है । सम्पूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिससे प्राकृतिक आपदाओं का जन्म हो रहा है और काफी धन -जन की क्षति हो रही है।
किन्तु दूसरी तरफ विकास की अंधी दौड़ में और पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध के रंग में रंगा हमारा समाज अपने सांस्कृतिक विरासत, संस्कृति, परम्पराओं , पँरथाओं एवं रीति रिवाजों को छोड़कर पश्चिमी समाज के मूल्यों को अपनाते हुए इस कदर बदरंग हो गया है कि उसके चलते हमारे समाज में सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण ने अपना इतना प्रभाव जमा लिया है कि समाज में अनेकों विकृतियां उत्पन्न हो गयी हैं। हमारा सामाजिक एवं सांस्कृतिक ढाँचा ही पूरी तरह ध्वस्त हो गया है। समाज को अनेक बुराईयों ने जकड़ लिया है।
आज हमारे अन्दर से नैतिकता समाप्त होती जा रही है, चारित्रिक विकृतिओं से मानव ग्रसित होता जा रहा है। मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन ने येन- केन - प्रकारेण अपनी इच्छाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किसी भी हद तक जाने को तैयार है। इन सबके चलते समाज गर्त में चलता जा रहा है। समाज से ईमानदारी कि लोप होता जा रहा है और उसका स्थान बेईमानी लेता जा रहा है।
समाज में व्याप्त बुराईयों में अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, चोरी , डकैती, छिनैती आदि का बोल बाला बढ़ता जा रहा है। बढ़ती बेरोजगारी के चलते इन बुराईयों में और वृद्धि होती क्षजा रही। औद्योगिक एवं नगरीय क्षेत्रों में समाजिक - सांस्कृतिक विकृतियां अधिक उत्पन्न हुई हैं। लोग रोजगार के तलाश में नगरों की तरफ पलायन कर रहे हैंऔर रोजगार न मिलने की स्थिति में अनैतिक कार्य करने लगते हैं, क्योकि उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति तो किसी न किसी रूप में होना ही है। सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण उत्पन्न करने में अशिक्षा भी अहम् भूमिका निभाती है।
इस प्रकार हम देख रहे हैं आज समाजिक - सांस्कृतिक प्रदूषण समाज को जकड़ता जा रहा है। साथ ही साथ यह सामाजिक - सांस्कृतिक प्रदूषण प्राकृतिक प्रदूषण बढ़खने में भी अहम् भूमिका निभा रहा है। कारण कि जैसी हमारी नियत एवं मानसिकता रहेगी, उसी के अनूरूप हम किसी के साथ व्यवहार करेंगें, चाहे वह मानव हो या पशु हो अथवा प्राकृतिक संसाधन हों, उनका दुरूपयोग एवं दोध तथा शोषण अवश्य करेंगें।
यदि हमें समाज को इन विकृतियों से छुटकारा दिलाना है, उन्हें सामाजिक एवं सास्कृतिक प्रदूषण से मुक्ति दिलाना है तो हमें अपनी सनातन संस्कृति की तरफ लौटना होगा और अपनी जीवन शैली में बदलाव लाते हुए पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से उबर कर भारतीय चिन्तन परम्परा को अपनाते हुए भारतीय संस्कृत एवं भारतीय जीवन शैली में जीवनयापन करना होगा।
डॉ सुनील ओझा
बलिया 4 जून 2019 ।।
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य पर्यावरणविद् डा० गणेश.कुमार पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि यह बात सोचकर अजीब लग रहा होगा कि भला मानव समाज के लिए सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण कैसे घातक साबित हो सकता है। किन्तु यह सत्य है यह सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण प्राकृतिक कारकों में हो रहे प्रदूषण से कहीं अधिक घातक सिध्द हो रहा है।
हम जानते हैं कि पर्यावरण के दो आयाम होते हैं- प्राकृतिक पर्यावरण एवं सामाजिक- सांस्कृतिक पर्यावरण। जिस तरह प्राकृतिक पर्यावरण के कारकों का अनियंत्रत एवं अनियोजित दोहन एवं शोषण से तथा औद्योगिकीकरण, नगरीयकरण , जनसंख्या वृद्धि तथा मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन से समाप्ति हो रही है और उनमें प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया है कि मानव के लिए विशेष रूप से घातक सिद्ध हो रहा है । सम्पूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिससे प्राकृतिक आपदाओं का जन्म हो रहा है और काफी धन -जन की क्षति हो रही है।
किन्तु दूसरी तरफ विकास की अंधी दौड़ में और पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध के रंग में रंगा हमारा समाज अपने सांस्कृतिक विरासत, संस्कृति, परम्पराओं , पँरथाओं एवं रीति रिवाजों को छोड़कर पश्चिमी समाज के मूल्यों को अपनाते हुए इस कदर बदरंग हो गया है कि उसके चलते हमारे समाज में सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण ने अपना इतना प्रभाव जमा लिया है कि समाज में अनेकों विकृतियां उत्पन्न हो गयी हैं। हमारा सामाजिक एवं सांस्कृतिक ढाँचा ही पूरी तरह ध्वस्त हो गया है। समाज को अनेक बुराईयों ने जकड़ लिया है।
आज हमारे अन्दर से नैतिकता समाप्त होती जा रही है, चारित्रिक विकृतिओं से मानव ग्रसित होता जा रहा है। मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन ने येन- केन - प्रकारेण अपनी इच्छाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किसी भी हद तक जाने को तैयार है। इन सबके चलते समाज गर्त में चलता जा रहा है। समाज से ईमानदारी कि लोप होता जा रहा है और उसका स्थान बेईमानी लेता जा रहा है।
समाज में व्याप्त बुराईयों में अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, चोरी , डकैती, छिनैती आदि का बोल बाला बढ़ता जा रहा है। बढ़ती बेरोजगारी के चलते इन बुराईयों में और वृद्धि होती क्षजा रही। औद्योगिक एवं नगरीय क्षेत्रों में समाजिक - सांस्कृतिक विकृतियां अधिक उत्पन्न हुई हैं। लोग रोजगार के तलाश में नगरों की तरफ पलायन कर रहे हैंऔर रोजगार न मिलने की स्थिति में अनैतिक कार्य करने लगते हैं, क्योकि उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति तो किसी न किसी रूप में होना ही है। सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण उत्पन्न करने में अशिक्षा भी अहम् भूमिका निभाती है।
इस प्रकार हम देख रहे हैं आज समाजिक - सांस्कृतिक प्रदूषण समाज को जकड़ता जा रहा है। साथ ही साथ यह सामाजिक - सांस्कृतिक प्रदूषण प्राकृतिक प्रदूषण बढ़खने में भी अहम् भूमिका निभा रहा है। कारण कि जैसी हमारी नियत एवं मानसिकता रहेगी, उसी के अनूरूप हम किसी के साथ व्यवहार करेंगें, चाहे वह मानव हो या पशु हो अथवा प्राकृतिक संसाधन हों, उनका दुरूपयोग एवं दोध तथा शोषण अवश्य करेंगें।
यदि हमें समाज को इन विकृतियों से छुटकारा दिलाना है, उन्हें सामाजिक एवं सास्कृतिक प्रदूषण से मुक्ति दिलाना है तो हमें अपनी सनातन संस्कृति की तरफ लौटना होगा और अपनी जीवन शैली में बदलाव लाते हुए पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से उबर कर भारतीय चिन्तन परम्परा को अपनाते हुए भारतीय संस्कृत एवं भारतीय जीवन शैली में जीवनयापन करना होगा।