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सम्यक विचार : प्रधानमंत्री मातृत्व वन्दना योजना की शर्तें यानी असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा


सम्यक विचार :PMMVY की शर्तें यानी असंवेदनशीलता

की पराकाष्ठा

प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स

बलिया एक्सप्रेस द्वारा साभार प्रकाशन 
बलिया 22 अक्टूबर 2019 ।।
     PMMVY : इस योजना के दिशा निर्देशों में कहा गया है कि,
‘भारत में अधिकांश महिलाओं को आज भी अल्पोषण प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है. भारत में हर तीसरी महिला अल्प पोषित है तथा हर दूसरी महिला रक्ताल्पता से पीड़ित है. अल्प पोषित माता अधिकांशतः कम वजन वाले शिशुओं को ही जन्म देती है. जब कुपोषण गर्भाशय में ही शुरू हो जाता है तो यह पूरे जीवन चक्र चलता रहा था और ज्यादातर दुष्प्रभाव अपरिवर्तनीय होते हैं.
आर्थिक सामाजिक तंगी के कारण कई महिलायें अपनी गर्भावस्था के आखिरी दिनों तक अपने परिवार के लिए जीविका अर्जित करना जारी रखती हैं. इसके अलावा, वे बच्चे को जन देने के ठीक बाद वक्त से पहले ही काम करना शुरू कर देती हैं, जबकि उनका शरीर इसके लिए तैयार नहीं होता है. इस प्रकार एक तरफ अपने शरीर को पूरी तरह से स्वस्थ होने से रोकती हैं और पहले छह माह में अपने नौनिहालों को अनन्य स्तनपान कराने की अपनी सामर्थ्य में भी बाधा पंहुचाती हैं.’
ये विचार केवल पहले जीवित जन्म और उस बच्चे के जीवित रहने तक लागू होते हैं. गर्भपात होने, मृत शिशु जन्म होने या नवजात शिशु मृत्यु होने पर सरकार यह सोच छोड़कर निर्मम हो जाती है.
इसके बाद सरकार कहती है कि पीएमएमवीवाय के तहत हक केवल पहले बच्चे के जन्म तक ही दिया जाएगा. जब संकट हर गर्भावस्था और धात्री अवस्था में होता है, तो पहले बच्चे तक हक सीमित क्यों?
सरकार का तर्क है कि ‘चूंकि अमूमन एक महिला की पहली गर्भावस्था उसे नई चुनौतियों और तनाव संबंधित कारकों के प्रति उजागर करती है” (प्रश्न 1269, राज्यसभा, 28 दिसंबर 2017), इसलिए सरकार ने पहले जीवित बच्चे तक के लिए यह हक सीमित रखा है. क्या इसका मतलब यह है कि दूसरे प्रसव से महिला सहज हो जाती है, उन्हें तनाव नहीं रहा और कोई जोखिम बचता नहीं है?’
भारत सरकार यह नहीं जानती है कि अब भी लड़की की शादी किस उम्र में कर दी जायेगी या वह कब और कितनी बार गर्भवती होगी, यह निर्णय उसके हाथ में नहीं होता है. विवाह और प्रजनन के बारे में निर्णय अब भी पितृसत्तात्मक समाज ही लेता है. ऐसे में पीएमएमवीवाय में शामिल शर्तें को केवल और केवल महिला विरोधी माना जाना चाहिए.
अमानवीयता की हद देखिये. योजना के अनुसार गर्भधारण के पंजीयन पर हितग्राही को 1,000 रुपये की पहली किश्त का भुगतान किये जाने का नियम है. यदि पहली किश्त मिल जाने के बाद गर्भपात हो जाता है, तब महिला को जीवन में दूसरी बार गर्भवती होने पर इस योजना का पूरा लाभ नहीं मिलेगा. उसे पहली किश्त से वंचित कर दिया जाएगा, मानो महिला ने पहले कोई अपराध किया हो!
इसी तरह नियम है कि जब पंजीकृत गर्भवती महिला की एक प्रसव पूर्व जांच होगी, तब 2,000 रुपये की दूसरी किश्त का भुगतान किया जाएगा. इसके बाद यदि किसी कारणवश गर्भपात हो गया या मृत शिशु का जन्म हुआ; उस स्थिति में जीवन में पुनः गर्भवती होने पर महिला को शुरुआती दो किश्तों (रुपये 3,000) का सहयोग नहीं मिलेगा, क्योंकि पहले की गर्भावस्था में उसके दो किश्तें मिली हैं. उसे केवल तीसरी किश्त (रुपये 2,000) का ही सहयोग मिलेगा.
इतना ही नहीं यदि जन्म के कुछ दिनों बाद नवजात शिशु की मृत्यु हो जाती है, और महिला को इस योजना के तहत तीनों किश्तें दी जा चुकी हैं, तब उसे अगली गर्भावस्था के तहत पीएमएमवीवाय का लाभ ‘नहीं’ मिलेगा. सरकार दर्शाना चाहती है कि वह महिला अभिशप्त है. गर्भपात, मृत शिशु जन्म और नवजात शिशु मृत्यु की स्थिति में वह महिला वंदना की पात्र नहीं मानी गई है.
गर्भपात या मृत शिशु जन्म के बाद, जब महिला दूसरी बार गर्भवती होगी तब सरकार उसे जोखिम में नहीं मानती है और जो भी बड़े उद्देश्य तय किये गए हैं, उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाएगा.
पहली बार के गर्भपात और दूसरी बार की गर्भावस्था पर मातृत्व हक से जुड़ी पीएमएमवीवाय की शर्तें स्त्री विरोधी और अमानवीय हैं. यह जरूरी है कि एक सभ्य समाज के सदस्य होने के नाते हम मातृत्व हक की योजना के इन प्रावधानों के पीछे छिपी हुई मंशा और चरित्र को पहचानें.

महिलाओं और बच्चों का जीवन गहरे संकट में होता है, फिर भी!


प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स
वर्ष 2008 से 2016 के बीच भारत और भारतीय राज्यों में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर और वास्तविक मृत्युओं का तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए यह पाया गया कि इन आठ सालों में भारत में 1करोड़ 23 लाख बच्चे अपना पांचवा जन्म दिन नही मना पाये और उनकी मृत्यु हो गई.
चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें से 68.70 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (नवजात शिशु मृत्यु यानी जन्म के 28 दिन के भीतर होने वाली मृत्यु) में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए ।
व्यवस्थित वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अध्ययनों से नवजात शिशु मृत्यु दर इतनी ज्यादा होने के चार महत्वपूर्ण कारण पता चले, सबसे ज्यादा नवजात शिशु मृत्यु समय से पहले जन्म लेने के कारण होने वाली जटिलताओं (43.7 प्रतिशत) के कारण हुईं. ऐसे में हर महिला को स्वास्थ्य, पोषण और मातृत्व हक मिलने चाहिए.
नवजात शिशु मृत्यु की समस्या की जड़ें लैंगिक भेदभाव और जीवन पर दूरगामी असर डालने वाले व्यवहार और सार्वजनिक स्वास्थ्य-पोषण सेवाओं को खत्म किये जाने की नीति में दबी हुई हैं.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-चार) के मुताबिक भारत में 26.8 प्रतिशत विवाह 18 साल से कम उम्र में हो जाते हैं. कम उम्र में विवाह की लड़कियों के कम उम्र में गर्भवती होने का कारण बनते हैं. इससे बच्चियां कमजोर, कुपोषित और असुरक्षित भी होती जाती हैं. एनएफएचएस (चार) के मुताबिक भारत में 50.3 प्रतिशत गर्भवती महिलायें खून की कमी की शिकार है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चार) के मुताबिक केवल 21 प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव से पूर्व की सभी सेवाएं (चार स्वास्थ्य जांचें, टिटनेस का कम से कम एक इंजेक्शन और 100 दिन की आयरन फॉलिक एसिड की खुराक) मिल पाती है.
हाशिए पर रहने वाली महिलायें गर्भावस्था के दौरान आराम नहीं कर पाती हैं, उन्हें मजदूरी करनी होती है, उन्हें सीमित पोषण मिलता है और काम में जुटे होने के कारण वे स्वास्थ्य जांच नहीं करवा पाती हैं; इन कारणों से गर्भस्थ शिशु का पूरा विकास नहीं हो पाता है.
यही कारण है कि 35.9 प्रतिशत शिशुओं की मृत्यु का कारण उनका समय से पहले जन्म लेना और जन्म के समय उनका वजन कम होना है. 31 मार्च 2016 को भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्यमंत्री ने बताया कि ‘वर्ष 2015 में भारत में 33.4 लाख बच्चों ने समय पूर्व जन्म लिया.’
यह एक चुनौती इसलिए है क्योंकि गर्भ में पूरी तरह से विकसित होने के लिए 40 सप्ताह की जरूरत होती है. इसके बाद भी जब उन्हें मां का दूध नहीं मिलता है, तो वे बहुत जल्दी संक्रमण के शिकार होते हैं.
भारत के महापंजीयक के मुताबिक संक्रमण (निमोनिया-16.9 प्रतिशत और डायरिया-6.7 प्रतिशत) के कारण 23.6 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु होती है. समय से पहले प्रसव बच्चे का पूरा विकास नहीं होने देता है.
यह जोखिम केवल पहले बच्चे के जन्म के समय तक ही सीमित नहीं होता है. समय से पूर्व जन्म लेने वाले कई बच्चों की मृत्यु हो जाती है, किंतु ऐसे मामलों में पीएमएमवीवाय महिलाओं को ‘अपराधी’ साबित करती है.
एनएफएचएस (4) से पता चलता है कि भारत में केवल 41.6 प्रतिशत बच्चों को ही जन्म के एक घंटे के भीतर मां का पहला दूध मिल रहा है. भारत में 54.9 प्रतिशत बच्चों को ही छह माह की उम्र तक केवल मां का दूध मिलता है.
भारत देश में 6 से 8 महीने की उम्र में केवल 42.7 प्रतिशत बच्चों को ऊपरी आहार मिलना शुरू होता है. यानी लगभग 57 प्रतिशत बच्चे भूख के साथ ही बड़े होते हैं. इस मामले में हमारा समाज और राज्य दुर्दांत अपराधी हैं.
देश में छह महीने की उम्र से दो साल की उम्र तक केवल 8.7 प्रतिशत बच्चों को स्तनपान के साथ पूरा जरूरी आहार मिलता है. जब महिलाओं को मातृत्व हक नहीं मिलते हैं, तब बच्चों को स्तनपान के रूप में पोषण का अधिकार भी नहीं मिल पाता है.
ऐसी अवस्था में पीएमएमवीवाय के लाभ को पहले बच्चे के जन्म तक सीमित रखना, एक लैंगिक संदर्भ में असंवेदनशील नीति और सोच है. एक कानून के आधार पर बनी पीएमएमवीवाय में ऐसी शर्तें किस मानसिकता से डाली गई होंगी, यह कल्पना से परे है.
हमें यह समझ लेना होगा कि हमारी राज्य व्यवस्था स्त्री, लैंगिक समानता की अवधारणा, लैंगिक असमानता और असंवेदनशीलता के जोखिमों और स्त्री श्रम के योगदान को थोड़ा सा भी महसूस नहीं कर पा रही है.
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता, कार्यकर्ता और अशोका फेलो हैं.)