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प्रयागराज : लोक मंगलकारी रचना, धर्मिता ,भारतीय संस्कृति के उत्थान में सहायक,साहित्यकार और पत्रकार सत्यम शिवम सुंदरम के पोषक बनें : स्वामी कल्पनेश जी

लोक मंगलकारी रचना, धर्मिता ,भारतीय संस्कृति के उत्थान में सहायक,साहित्यकार और पत्रकार सत्यम शिवम सुंदरम के पोषक बनें :  स्वामी कल्पनेश जी 

 प्रयागराज 17 अप्रैल 2020 ।।  भारतीय संस्कृति का उत्थान और समुन्नत विकास तभी संभव है जब साहित्यकार और पत्रकार अपनी रचना धर्मिता लोक कल्याणकारी बनाएंगे   . जब हम सत्यम शिवम सुंदरम के पोषक बन जाएंगे तभी हम समाज हित में कुछ सार्थक कर पाएंगे   साहित्य को समाज का पथ प्रदर्शक माना गया है और साहित्य से समाज का प्रत्येक वर्ग किसी न किसी रूप में प्रभावित होता है  चूंकि  पत्रकारिता साहित्य की जीवंत विधा है इसलिए इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है साहित्यकारों और पत्रकारों के लिए आज आवश्यक हो गया है कि वह इस वैचारिक प्रदूषण के संक्रमण काल की चुनौती को गंभीरता से लें और जन जागरण में अपनी महती भूमिका निभाएं   "
  उपरोक्त विचार भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के साहित्य प्रकोष्ठ एवं सामाजिक व सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के तत्वावधान में विचार प्रवाह संप्रेषण श्रृंखला के अंतर्गत मनीषियों ने व्यक्त किए   .     विषय प्रवर्तन के रूप में विख्यात साहित्यकार और संत कवि स्वामी कल्पनेश जी महाराज ने कहा कि
भारतीय संस्कृति के उत्थान में पत्रकारों-साहित्यकारों का  अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है ।




 आज जब सारा विश्व एक विषाणु  के प्रक्षेप से मरण के कगार पर कराह रहा है।अल्प अवधि में लाखों जन संहार की पीड़ा को हम भोगने के लिए अभिशप्त हैं, आज का यह विषय बहुत ही सुंदर है।पत्रकार-और साहित्यकार दोनों ही एक सिक्का के दो पहलू हैं।दोनों की दृष्टि मंगल विधान की स्थापना है।
       इस समय मुझे अपने मित्र साहित्यकार कीर्ति शेष नंदल हितैषी का एक वाक्य याद आ रहा है--"जो रचेगा वह बचेगा।" रच तो चीन-ब्रिटेन-इटली-अमेरिका सभी रहे हैं।इन्हीं की रचना प्रतियोगिता का परिणाम है आज का यह विषाणु।इनके अणु बम से सारा विश्व भयभीत था पर प्रतियोगिता में बाजी मार ले गया चीन---केवल एक विषाणु की रचना करके।
     निजी लाभ से प्रेरित कोई भी रचना मांगलिक हो नहीं सकती यह अकेली मेरी धारणा नहीं है।यह भारतीय मनीषा की धारणा है।इसी धारणा  से ओतप्रोत हमारे पत्रकार और साहित्यकार दोनों हैं।दोनों ही बिना किसी लाभ की कामना से आबद्ध रात-दिन सभ्यता के उदय काल से आज तक सतत् सक्रिय हैं।यही भारतीय संस्कृति का ध्येय है।यही भारतीय  संस्कृति का प्रस्थान बिंदु है।मानवीय रचना का यही मूल स्वर है,जहाँ कुछ प्राप्त करना नहीं केवल देना-देना है ।
 अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना से साहित्य और समाज को एक नई चेतना और ऊर्जा का प्रवाह प्रदान करने में सक्षम वरिष्ठ साहित्यकार डॉ त्रिलोक सिंह जी का कहना है कि    हमारी बहुआयामी भारतीय संस्कृति में रीति-रिवाज,परम्पराएँ,
आचार-विचार और लोककल्याणकारी आध्यात्मिक भावनाएँ परस्पर अन्तर्सम्बन्धित हैं,परन्तु कतिपय असामाजिक तत्वों द्वारा इसमें मिथ्या विकृति दिखलाकर जनमानस में अनेक भ्रान्तियाँ फैलायी जाती रही है ।ऐसे समय में देश के प्रबुद्ध पत्रकारों एवं विज्ञ साहित्यकारों का यह परम दायित्व है कि वे सब एकजुट होकर प्रभावी पत्रकारिता  एवं सत्साहित्य-प्रणयन के द्वारा भारतीय संस्कृति की रक्षा एवं उसके अभ्युत्थान हेतु प्राणपण से समर्पित हों जिससे सामाजिक उच्चादर्शों एवं मानवीय मूल्यों की  पोषक हमारी भारतीय संस्कृति अखिल विश्व में " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया: " की व्यापक भावना का विस्तार कर सके ।
         अपने विचारों का फलक विस्तृत करने में सिद्धहस्त पत्रकार और महासंघ के प्रदेश महासचिव शिवाशंकर पांडे ने अपने विचार कुछ इस प्रकार रखे
किसी भी समाज के उत्थान के लिए जन चेतना आवश्यक है। यह जागरूकता से ही बढ़ता है। साहित्य रोशनी देता है तो पत्रकार उसे दूर दूर तक फैलाने की भूमिका निभाता है।समाज में इसका प्रभावी असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। वैदिक काल, रीति काल, भक्ति काल से लेकर स्वतंत्रता संग्राम तक साहित्य और पत्रकारिता ने माहौल बनाने का कार्य किया है।अगर ये कहा जाए की समाज को गढ़ने में साहित्य और पत्रकारिता का प्रमुख योगदान होता है यह अतिश्योक्ति न होगी। अगर मौजूदा दशा की बात करें तो सिक्के का एक दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि अब साहित्य और पत्रकारिता में काफी घालमेल दिखने लगा है।दोनों ही दिशाहीन दशा में हैं। साहित्य क्षेत्र में रचनाओं की स्वस्थ आलोचना का अभाव है। समीक्षा के नाम पर खुशामदी की प्रथा मजबूत हो रही है। 'तुम मुझे सूर कहो मै तुम्हे निराला' की प्रवृति साहित्य के क्षेत्र में बढ़ी है। सवाल है कि हिंदुस्तान की सरजमीं पर लंबे समय गुजर जाने के बाद भी कालिदास, मुंशी प्रेमचन्द, सूर, कबीर, तुलसी, रसखान सरीखे प्रभावी रचनाकार हम दोबारा नहीं पैदा कर सके। जबकि लिखने वालों की भीड़ बेतहाशा बढ़ी है। यही हाल पत्रकारिता का भी है। नफा नुकसान के धंधे में तब्दील खांटी पत्रकारिता की मूल आत्मा की सांस थमने की कगार पर है। साहित्यकार और पत्रकार की भूमिका तय करने के पहले  साहित्य और पत्रकारिता दोनों का मिजाज बदलना होगा। इसमें सिर्फ और सिर्फ, पाठक ही प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि असल लगाम उन्हीं के हाथ में है।                       
भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के प्रयागराज जिला इकाई के अध्यक्ष अखिलेश मिश्र ने अपना विचार प्रस्तुत करते हुए पत्रकारिता को सदैव जनसामान्य के हित के लिए करने की बात कही उन्होंने कहा कि जब भी कभी समाज को और देश को किसी समय के सापेक्ष कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस हुई है तो उसमें पत्रकारों और साहित्यकारों ने अपनी महती भूमिका निभाई है कालांतर में साहित्य और पत्रकार के प्रणेता  ही भारतीय संस्कृत के नायक बने हैं
इस विचार प्रवाह संप्रेषण श्रृंखला के सूत्रधार व संचालक भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक डॉक्टर भगवान प्रसाद उपाध्याय ने कहा कि वर्तमान समय में वैचारिक प्रदूषण इतना अधिक विकृत रूप ले चुका है कि अब साहित्यकारों और पत्रकारों को विशेष रूप से सतर्क रहकर भारतीय संस्कृति की रक्षा और उसके उत्थान के लिए प्रयास करना होगा यह समय कपोल कल्पित और सिर्फ आनंद के लिए रचना धर्मिता का नहीं है बल्कि समाज को सही और सार्थक दिशा देने में सक्षम रचना देने का है ऐसे में भारतीय संस्कृति के हितार्थ पत्रकारों और साहित्यकारों को अपनी पूरी बौद्धिक क्षमता का सही इस्तेमाल करना होगा ।







बलिया जिला प्रशासन की लोगो से अपील

कोरोना के प्रति जागरूक करता भोजपुरी गीत




यह हिंदी गाना भी आपको कोरोना के सम्बंध में बता रहा है

डॉ विश्राम यादव वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी अपनी कविता का पाठ करते हुए










एक अपील 
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