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मातृ दिवस पर विशेष : तुम एक गहरी छाव है अगर तो जिंदगी धूप है माँ धरा पर कब कहां तुझसा कोई स्वरूप है माँ

मातृ दिवस पर विशेष :
 तुम एक गहरी छाव है अगर तो जिंदगी धूप है माँ
धरा पर कब कहां तुझसा कोई स्वरूप है माँ
मधुसूदन सिंह
गोलोकवासी माता जी पिता जी को शतशत नमन

बलिया 10 मई 2020 ।। मां, वह शब्द है जिससे अपनत्व झलकता है,यह वह शब्द है जो सारी कायनात से लड़कर अपने बच्चे को सुरक्षित रखने का मादा रखता है, यह नश्वर दुनिया ही क्या जिसके कोप से ऊपर वाला भी डरता है । जी हां, मां ऐसी ही होती है । यह अपनी औलाद के लिये अपने पति तक से भिड़ने को तैयार रहती है,जरा सा दर्द क्या बच्चे को हुआ सारी सारी रात अपनी नींदे खराब कर देती है ,ऐसी होती है माँ ।
कि लगा बचपन में यू अक्सर अँधेरा ही मुकद्दर है.
मगर माँ होसला देकर यू बोली तुम को क्या डर है,
 मैं सौभाग्यशाली रहा कि मुझे मां का भरपूर प्यार दुलार मिला । यही नही जब वह  अपने अंतिम दिनों में बिस्तर पर थी,मेरे आने में तनिक भी देर हो जाती तो इशारों से कई बार पूंछती रहती थी और जब मैं आता तो उसकी नजरो में देर से आने के लिये शिकायत भी रहती थी, नसीहत भी रहती थी । सच पूँछिये तो वो मेरे संघर्षों की सच्ची साथी व मार्गदर्शक थी । आज जब वो हमारे बीच नही है तो उसकी कमी मैं बहुत महसूस करता हूँ । मां बाप के खोने के बाद मैने जाना कि ये वो धन है जो पूरी जिंदगी की कमाई भी इनके बराबर नही हो सकती है ।

"दर्पण"

हे जननी! तू धन्य है, 
तुझ सा न कोई अन्य है। 
दर्पण है जगत का तू,
 तुझसे ही लावण्य है।

मधुर एहसास है तूं.
हर जन की आस है तू।

माने जाने भी नहीं
 रहती सबकी पास ही तू
 आहट भी देती जागृति, 
स्पर्श मलिनता धोती है। 
बालक से बलकल तक, 
आगोश तेरी ही रोती है।

हर दर्द सहती खेलों में, 
लगने न देती आहट कभी। 
पिरोती अंगारे में खुशी, 
रहते इससे अंजान सभी।
 उदृनखल बन जीते सभी,
रहता भरोसा आपका।

नश्वर इस संसार में, 
पता आपही है  बाप का 
ममता ही है धाम तेरा,
 त्याग तपस्या पहचान है। 

क्रन्दन में भी कलरव से.
बनी तू सबकी आन है। 
श्रेष्ठता की प्रतिमुर्ति तू, 
प्रतिबिंब तेरो जगत में। 
तेरे बिन सब शुन्य है, 
भक्ति शक्ति पंगत में।

डॉ सुनील कुमार ओझा
अमर नाथ पीजी कालेज
दुबेछपरा बलिया




 आज जब मैं खबरों में देखता हूँ कि बहुत बड़े अधिकारी ने , व्यवसायी ने अपने बूढ़े मांबाप को ओल्ड एज होम में रख दिया है तो मुझे बहुत दुख होता है और बहुत गुस्सा आता है ऐसे बड़े लोगो पर जो अपनी जड़ को काटकर फलने फूलने की तमन्ना रखते है । मुझे ऐसे बेटों पर यही कहना है - बड़ा हुआ तो क्या हुआ,जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नही, फल लगे अति दूर ।।
मैं अपनी माँ की याद में विभिन्न शायरों व कवियों की शायरी व कविताओं के माध्यम से मातृ दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा हूँ ---

तुम एक गहरी छाव है अगर तो जिंदगी धूप है माँ
धरा पर कब कहां तुझसा कोई स्वरूप है माँ
अगर ईश्वर कहीं पर है उसे देखा कहां किसने
धरा पर तो तू ही ईश्वर का रूप है माँ, ईश्वर का कोई रुप है माँ
नई ऊंचाई सच्ची है नए आधार सच्चा है
कोई चीज ना है सच्ची ना यह संसार सच्चा है
मगर धरती से अंबर तक युगो से लोग कहते हैं
अगर सच्चा है कुछ जग में तो माँ का प्यार सच्चा है
जरा सी देर होने पर सब से पूछती माँ,
पलक झपके बिना घर का दरवाजा ताकती माँ
हर एक आहट पर उसका चौक पड़ना, फिर दुआ देना
मेरे घर लौट आने तक, बराबर जागती है माँ

सुलाने के लिए मुझको, तो खुद ही जागती रही माँ
सहराने देर तक अक्सर, मेरे बैठी रही माँ
मेरे सपनों में परिया फूल तितली भी तभी तक थे.
मुझे आंचल में लेकर अपने लेटी रही माँ.
बड़ी छोटी रकम से घर चलाना जानती थी माँ
कमी थी बड़ी पर खुशियाँ जुटाना जानती थी माँ.
मै खुशहाली में भी रिश्तो में दुरी बना पाया.
गरीबी में भी हर रिश्ता निभाना जानती थी माँ.
-Dinesh Raghuvanshi

कि लगा बचपन में यू अक्सर अँधेरा ही मुकद्दर है.
मगर माँ होसला देकर यू बोली तुम को क्या डर है,
मै अपना पन ही अक्सर ढूंढता रहता हू  रिश्तो में
तेरी निश्छल सी ममता कहीं मिलती नहीं माँ.
गमों की भीड़ में जिसने हमें हंसना सिखाया था
वह जिसके दम से तूफानों ने अपना सिर झुकाया था
किसी भी जुल्म के आगे, कभी झुकना नहीं बेटे
सितम की उम्र छोटी है मुझे माँ ने सिखाया था
भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं माँ
तेरी हाथों की नर्माहट कहीं मिलती नहीं माँ
मैं तन पर ला दे फिरता दुसाले रेशमी
लेकिन तेरी गोदी की गर्माहट कहीं मिलती नहीं माँ
तैरती निश्छल सी बातें अब नहीं है माँ
मुझे आशीष देने को अब तेरी बाहें नहीं है माँ
मुझे ऊंचाइयों पर सारी दुनिया देखती है
पर तरक्की देखने को तेरी आंखें नहीं है बस अब माँ
-Dinesh Raghuvanshi

हम एक शब्द हैं तो वह पूरी भाषा है
हम कुंठित हैं तो वह एक अभिलाषा है
बस यही माँ की परिभाषा है.
हम समुंदर का है तेज तो वह झरनों का निर्मल स्वर है
हम एक शूल है तो वह सहस्त्र ढाल प्रखर
हम दुनिया के हैं अंग, वह उसकी अनुक्रमणिका है
हम पत्थर की हैं संग वह कंचन की कृनीका है
हम बकवास हैं वह भाषण हैं हम सरकार हैं वह शासन हैं
हम लव कुश है वह सीता है, हम छंद हैं वह कविता है.
हम राजा हैं वह राज है, हम मस्तक हैं वह ताज है
वही सरस्वती का उद्गम है रणचंडी और नासा है.
हम एक शब्द हैं तो वह पूरी भाषा है.
बस यही माँ की परिभाषा है.
Shailesh Lodha

अंत मे यही कहना है -----