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बलिया : अनुदानित स्ववित्तपोषित शिक्षक के विशेष संदर्भ में---" स्वयं से घायल शिक्षित समाज "







बलिया ।। परिचर्चाओं की जरुरत समाज में तब पड़ता है, जब संरचनाओं में स्वार्थ की जकड़न आ जाती है। तब घनघोर उपेक्षित आहत भावनायें, अपने आप को अपनो के बीच, ठगी का शिकार स्वयं को समझने लगती है।
            सनातन से संरक्षित हमारी परम्परागत संस्कृति का जब दोहन होने लगता है। तब सबकुछ बैशाखियों पर धीरे-धीरे जाने लगता है, और धुल धुसरित हो जाता है। फिर चाह कर भी हम अपने आप को इस मंजर से बाहर निकालने की जगह, इसमें डूबते चले जाते हैं।
           आज का परिवेश, कुछ इसी तरह आगे बढ़ने की कोशिश में, निरन्तर प्रयत्नशील है। इसीलिये अवस्थाएं हमारी, दिन प्रति दिन बद से बदतर होती जा रही है। जिससे निकलने के हर मार्ग अवरुद्ध होते जा रहे हैं। क्योंकि जब भी हमारी सोच, सिमित होने लगती है तो, साधना साधकों की पहुँच से दूर चली जाती है।
            आज समाज के संरक्षक अपने आपको कहने वाले अनुदानित स्ववित्तपोषित शिक्षक, सबसे आहत स्वयं को महसूस कर रहे हैं। क्योंकि उनके प्रतिभाओं के उपयोग की जगह, हनन की हालत अधिक बन गया है। उनके कद के साथ न्याय करने की इच्छा शक्ति का ह्रास हो गया है।
         यह सत्य है कि इस स्थिति के लिए कुछ हदतक वो भी जिम्मेदार है। वो अपने आकार और प्रकार को समझने में भूल करने लगे हैं। समय की धाराओं में, ठहरने की जगह बहने की इच्छाओं से ग्रसित होने लगे हैं। शायद उनके असामयिक पतन का यह एक कारक है।
             " विद्वत समाज जबभी असंगठित रहा है, तब-तब बिसंगतियां अपना पौ बाहर करने लगी है।" जिससे समाजिक अवस्थाएं निरन्तरता से अवनति की ओर चली गयी है। ऐसी सूरत में सर्वप्रथम स्वयं को समझने की आवश्यकता होती है।
              जब भी संरक्षक अपनी कार्यशील के प्रति वफादार रहता है। उसे पराभव कभी नहीं मिलता। लेकिन जैसे ही वह अपने आप से न्याय के प्रति उदासीन होता है। समूल अवनति की ओर अग्रसर हो जाता है।
           यह चरितार्थ आज हो रहा है कि हमारी नीति निर्माताओं (सरकारें) द्वारा निर्धारित मानकतायें औसत दर्जे की होती जा रही है। जिसमें आधार की उपेक्षापूर्ण दिशानिर्देशन से एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गया है।
           यह दुर्भाग्य है। हमारी रीढ़ की हड्डी के समान शिक्षा प्रणाली क्षतिग्रस्त होती जा रही है। अपने आप को उपेक्षित समझने वाली शिक्षक की भावना निरन्तर उदासीनता का शिकार होने लगी है। यह शुभ संकेत नहीं है।
               अतः लेखनी समाज की एक सजग प्रहरी की अपनी भूमिका स्वरुप शुभ चिन्तकों को सचेत करती है कि " अब भी जगो कहीं देर न हो जाए।"


               उपेक्षित
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हे मानव, तू ही श्रेष्ठ यहां पर,
                मानवता तेरा है परिचायक।
आदि से अब तक ये परिचय,
                होगा तू ही, कल का नायक।।

अलंकृत होकर अलंकारों से,
                पथभ्रष्ट हुआ, कैसे तू आज।
करके पाखंड करता अन्याय,
                देख तमाशा, घायल समाज।।

स्वार्थ में बंधक बनी सरस्वती,
                 लक्ष्मी का, परचम लहराया।
मजबूर ज्ञान, हो गया है बेगार,
                 अज्ञानियों ने झंडा फहराया।।

कुहूकता मन होकर है कायल,
                  यह चलन धरा पे देख ऐसा।
चहुओर हो रहे शोषण फिरभी,
                   देखता न कोई अन्धों जैसा।।

बातें करोगे, किसकी 'स्वार्थी'?
                    स्वारथ में सब लोग है नंगा।
संकोच न होती यहां किसी को?
                     करते हैं गंदा मस्ती में गंगा।।

छोड़ता नहीं है समय कभी भी,
                   आता एक दिन सबकी बारी।
जल पर तल मलता नाव कभी,
                   भरे नाव में कभी, जल सारी।।

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लेखक-अनुदानित कालेज में स्ववित्तपोषित शिक्षक है।

डॉ सुनील कुमार ओझा(उपसंपादक बलियाएक्सप्रेस)