श्रेष्ठ नागरिक तैयार करने के लिये प्राथमिक से उच्च शिक्षा स्तर तक पढ़ाई जाय दर्शन शास्त्र : शोध छात्र राघवेंद्र प्रताप सिंह
बलिया ।। कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान विभिन्न तथ्यों के दृष्टिगत देश मे राष्ट्रीय शिक्षा नीति का नए कलेवर के साथ बदलाव बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा। परंतु इस महामारी से भी भीषण समस्या आज समाज में बढ़ रही अमानवीयता, अनैतिकता, स्वार्थपरता, हिंसक प्रवृत्ति में मानवता सहज नही है। एक तरफ महिलाओं, बच्चों तथा समाज के अबलों के साथ अमानवीय व्यवहार हमें विचलित करता है। तो दूसरा प्रश्न खड़ा होता है कि हम सभी के द्वारा प्रकृति के साथ किये जा रहे कृत्य भी क्या उचित है? आख़िर इसका समाधान क्या है? जहाँ एक तरफ इस महामारी से लड़ने में कोरोना वारियर्स अपने जीवन को जोखिम में डाल रहे है वही कुछ जिम्मेदार अपनी झोलियां भरने में मशगूल है। उपरोक्त दोनों पहलुओं का जिम्मेदार हमारी शिक्षा नीति है। जिसके मूल विचार में मानव को मानव बनाने की शिक्षा देने वाले विषय दर्शनशास्त्र को कोई स्थान नहीं दिया जा रहा है। दर्शनशास्त्र की शिक्षा जो हमारे अन्दर शुभ- अशुभ, उचित-अनुचित का बोध नैतिकता द्वारा कराती है। आज दर्शनशास्त्र की स्थिति यह है कि यह केवल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ही है वह भी शिक्षा के बड़े केंद्रों महानगरों में ही इसका केंद्रीकरण है। यदि दर्शन विषय की नीति शास्त्रीय पहलुओं को प्राथमिक से लेकर माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक लागू किया जाए तो शिक्षा में मूल्यवत्ता का समावेश किया जा सकता है। मूल्यपरक शिक्षा श्रेष्ठ नागरिक तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उपरोक्त बाते दर्शनशास्त्र के शोधछात्र राघवेन्द्र प्रताप सिंह ने सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति के लागू करने पर व्यक्त किया।
श्री सिंह ने बताया कि प्राचीन काल मे दर्शन ही राज्य की नीतियों का निर्माण करता था। परंतु आज राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण नीति से दर्शन ही गायब है। गौरतलब है कि कुछ वर्ष पहले से ही विभिन्न विश्वविद्यालयों के दर्शन विभाग के आचार्यों द्वारा इसे माध्यमिक शिक्षा में जोड़ने की पहल किया गया । इसके लिए समस्त जिम्मेदार पदस्थ लोगों को चाहिए कि पाठ्यक्रम के निर्धारण में दर्शन को स्थान देने हेतु सार्थक पहल करें।