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अयोध्या में भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर निर्माण के आंदोलन की नींव में है बागी बलिया का श्रम



बलिया ।।
द क्विंट की एक्सक्लुसिव पड़ताल
5 अगस्त 2020 का दिन हिन्दू जनमानस के लिये सबसे बड़े धार्मिक उत्सव का है क्योंकि इस दिन अयोध्या में सैकड़ो वर्ष के संघर्षों के बाद अयोध्या के राजा भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण का शिलान्यास प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी करेंगे ।
 लेकिन कल का जो ऐतिहासिक दिन आया है वह आजादी की लड़ाई जैसा संघर्ष करने व हजारों रामभक्तों के बलिदान के बाद आया है । इस आंदोलन में जान 1949 में आयी जब विवादित स्थल के अंदर भगवान का प्राकट्य हुआ । इस समय
ठाकुर गुरुदत्त सिंह यहां नगर मजिस्ट्रेट/प्रभारी जिलाधिकारी थे और इन्ही के रहते भगवान की मूर्तियां स्थापित हुई । ठाकुर गुरुदत्त सिंह में बागी बलिया का तेज था , इनके भाई डॉ गुरु हरख सिंह बलिया के प्रसिद्ध चिकित्सक थे । डॉ गुरु हरख सिंह के पुत्र डॉ गुरु विलास सिंह भी प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ थे ।
बाबरी मस्जिद करीब सौ साल पहले (फोटो: ब्रिटिश लाइब्रेरी बोर्ड)

चमत्कार नहीं था ये



उस समय गुरुदत्त सिंह फैजाबाद के सिटी मैजिस्ट्रेट थे और उनके बारे में यह मशहूर था कि उन्होंने अपने ब्रिटिश आकाओं को खुश करने की खातिर अपने तौर-तरीके कभी नहीं छोड़े थे. उनके पोते शक्ति सिंह, जो कि फैजाबाद में बीजेपी के नेता हैं, के अनुसार गुरुदत्त “पक्के हिंदूवादी” थे.
गुरुदत्त सिंह शाकाहारी थे, कोई नशा नहीं करते थे और अपने कॉलेज के दिनों से ही रामभक्त थे.

गुरुदत्त सिंह भारत की आजादी के पहले से ही एक सरकारी अफसर थेे और ये उनका ही प्लान था कि बाबरी मस्जिद को मंदिर में बदल दिया जाए. (फोटो: द क्विंट)
गुरुदत्त सिंह के बेटे गुरू बसंत सिंह, 86, पहले तो हमसे बात करने में हिचके लेकिन थोड़ी देर बाद उन्होंने द क्विंट को उन खुफिया बैठकों के बारे में बताया जो उनके घर ‘राम भवन’ में हुआ करते थे. उस समय बसंत सिंह सिर्फ 15 साल के थे और मेहमानों को नाश्ता-पानी देने के लिए उन बैठकों में आते-जाते रहते थे. इन बैठकों में उनके पिता के अलावा जिला मजिस्ट्रेट केके नायर, पुलिस अधीक्षक कृपाल सिंह और जिला जज ठाकुर बीर सिंह शामिल थे.
शहर के चार बड़े अधिकारी बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति स्थापित करने की जिद पर थे. कौन करता इनका विरोध और उससे क्या हो जाता? उनकी गतिविधियों से लगता था कि वो सतर्क अधिकारी थे, लेकिन असल में वो भक्तों को छूट देते थे ताकि वो मस्जिद में घुस सकें और पूजा-पाठ कर सकें
<b>गुरू बसंत सिंह</b>
लेकिन जो कुछ भी इन अधिकारियों ने किया उसे कबूल लेने की बजाय उन्होंने ‘चमत्कार’ की कहानी क्यों गढ़ी? इस सवाल का जवाब गुरू बसंत सिंह के पास है. उन्होंने हमें बताया कि इस घटना से आम लोगों को जोड़ने के लिए ऐसा किया गया. मस्जिद में स्वयं रामलला के प्रकट होने के दावे से बेहतर युक्ति क्या होती ।
(ग्राफिक्स: राहुल गुप्ता)
गुरुदत्त सिंह के सीनियर और फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट केके नायर एक मृदुभाषी मलयाली थे. कहा जाता है कि उनका झुकाव हिंदू महासभा की तरफ था - जो कि भारत की सबसे पुरानी हिंदूवादी राष्ट्रवादी पार्टी थी. जिस दिन बाबरी मस्जिद में घुसपैठ हुई, उस दिन केके नायर छुट्टी पर थे, लेकिन वो फैजाबाद छोड़कर नहीं गए.
इस योजना में केके नायर की मिलीभगत की बात इससे भी साबित होती है कि वो घटनास्थल पर सुबह चार बजे ही पहुंच गए थे, लेकिन उन्होंने लखनऊ में अपने वरिष्ठों को इस घटना की सूचना सुबह 10:30 बजे तक नहीं दी.
बाबरी मस्जिद में हिंदू धर्म के कुछ लोग रात के अंधेरे में घुस आए और वहां भगवान की स्थापना की. जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक और पुलिस के जवान मौके पर पहुंच चुके हैं. स्थिति नियंत्रण में है. पुलिस पिकेट के 15 जवान, जो रात को ड्यूटी पर थे, ने भीड़ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.&nbsp;
<b>संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोबिंद बल्लभ पंत को केके नायर का रेडियो संदेश</b>
सुबह 4 बजे बाबरी मस्जिद पहुंच चुके नायर ने अगले पांच घंटे तक ना तो मस्जिद खाली कराने की कोशिश की और ना ही मूर्ति को हटाया. नायर बाद में जनसंघ में शामिल हो गए और चुनाव जीतकर सांसद भी बने.

प्रधानमंत्री नेहरू क्या कर रहे थे?

26 दिसंबर,1949 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोविंद वल्लभ पंत को टेलिग्राम भेजकर अपनी नाराजगी जाहिर की और लिखा कि “वहां एक बुरा उदाहरण स्थापित किया जा रहा है जिसके भयानक परिणाम होंगे.”
इसके बाद 5 फरवरी, 1950 को उन्होंने पंत को एक और चिट्ठी लिखी और उनसे पूछा कि क्या उन्हें अयोध्या आना चाहिए.
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की यह यात्रा कभी नहीं हो पाई
बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियों की स्थापना के 66 साल बाद आज भी इस बात पर बहस जारी है कि 22 दिसंबर, 1949 को हुई यह घटना “एक सुनियोजित साजिश थी जिसमें राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर के नेता शामिल थे ।
रामलला की स्थापना के 43 साल बाद बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया. (फोटो: Reuters)
लेकिन जमीनी स्तर पर, इसे स्थानीय प्रशासन और मीडिया द्वारा एक स्थानीय सांप्रदायिक घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया. 22 दिसंबर, 1949 को घटी इस घटना ने अंग्रेजों द्वारा बनाई गई उस व्यवस्था को भी खत्म कर दिया जिसके अंतर्गत हिंदुओं और मुस्लिमों के लिए मस्जिद के अंदर पूजा और नमाज पढ़ने की व्यवस्था की गई थी.
वीएचपी, बीजेपी और कांग्रेस ने चार दशक बाद इस मामले को इस तरह उठाया जिसकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी. बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की, जो एक जन आंदोलन बन गया, जिसका अंत 6 दिसंबर, 1992 के दिन बाबरी के विध्वंश के साथ हुआ.
बाबरी मस्जिद परिसर, कानून की धारा 145 के तहत सभी के लिए बंद कर दिया गया. इससे जुड़े सिविल मामलों की सुनवाई में आदालत ने मूर्तियां हटाए जाने या पूजापाठ में किसी तरह की रुकावट पर रोक लगा दी. छह दिसंबर 1992 तक मस्जिद के दरवाजे बंद रखे गए और अंदर आने की इजाजत सिर्फ उन पुजारियों को दी गईं जो रामलला की ‘देखभाल और पूजापाठ’ करते थे.