भोजपुरी के शेक्सपियर थे भिखारी ठाकुर : डॉ०आदित्य कुमार ' अंशु '
बलिया ।। भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 दिन सोमवार को ठीक दोपहर में ठाकुर परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दलसिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। बिहार के कुतुबपुर गांव में एक साधारण परिवार में इनका जन्म हुआ था।
यह गांव पहले भोजपुर जिला के सीमा क्षेत्र में पड़ता था पर अब सारण जिला के सीमा क्षेत्र में आता है। भिखारी ठाकुर अपने मां-बाप के पहले पुत्र थे, इसलिए उनको एक आस बनी रहती थी कि लड़का पढ़ लिखकर गांव जवार में उनका नाम रोशन करेगा। ये 9 वर्ष की उम्र में पढ़ने गए, पर इनका पढ़ाई में मन नहीं लगा । इन्होंने अपने छोटे भाई से अक्षर ज्ञान की जानकारी ली। पढ़ते-पढ़ते इनको ऐसा अभ्यास हुआ। और वे कैथी लिपि सीख गए। अपने घरवालों से छुप - छुप कर नृत्य देखने भी जाने लगे थे और छोटी-मोटी भूमिका भी अदा करने लगे थे।
फोटो -डॉ आदित्य कुमार अंशु
एक दिन अपने घर से भागकर खड़गपुर चले गए जहां उनको मेदिनीपुर जिला का रामलीला देखने का मौका मिला। रामलीला देखने के बाद उनके अंदर का कलाकार जाग उठा और उन्होंने 30 वर्ष की उम्र में *'विदेशिया'* नामक नाटक की रचना कर खूब नाम कमाया। उनका जितना ही विरोध हुआ उतना ही उनके अंदर छुपा हुआ कलाकार हुंकार मारने लगा।
कुछ दिनों बाद इन्होंने एक नृत्य मंडली तैयार की और जगह-जगह पर रंगमंच की क्रांति फैला के जीवंत किया।उस समय की सामाजिक बुराई जैसे *'जनता का दर्द'* , *'नारी जाति की दुर्दशा'* *'बे-मेल शादी'*, *स्त्री को एक बांधी हुई गाय*, *'विधवा की पीड़ा'* जैसी कुरीतियों पर प्रहार किया।
तीन दर्जन से अधिक नाटकों की रचना करने के बाद वह *'भोजपुरी का शेक्स्पीयर'* भोजपुरी के भारतेंदु के रूप में उस इलाके में स्थापित हो गए । उस समय जहां कहीं भी भिखारी ठाकुर का रंगमंच लगता था वहां के लोग अपने काम-धाम छोड़कर इनका नृत्य देखने के लिए आते थे। बिना किनारी की धोती, सिर पर साफा, पैर में जूता, 6 गज के मिरजई यही भिखारी ठाकुर का पहनावा था।भोजन में जो कुछ मिल जाए उसे प्रसाद समझकर खा लेते थे मगर खाने के बाद उन्हें गुड़ की आदत थी।
उनके लिखे हुए नाटक दूधनाथ प्रेस (हावड़ा) और कचौड़ी गली (बनारस) से बहुत प्रकाशित हुआ करते थे। वह इतने ज्यादा प्रचलित हो चुके थे कि लोग चलते फिरते फुटपाथ से भी खरीद के उनके किताबें पढ़ने लगे थे। *विदेशिया* उनका पहला नाटक रहा जो एक नई नवेली औरत की पीड़ा की कहानी है। जिसमें विदेशिया अपने औरत का गवना कराके घर ला रहा है मगर उसके बाद कमाने कोलकाता चला जाता है और एक वेश्या से फंस जाता है।कुछ दिन बाद तक हो जब नहीं आता है तो उसकी औरत एक राहगीर से अपने दर्द बता रही है जो कोलकाता कमाने के लिए जा रहा है।
'कलियुगी प्रेम' नाटक का एक छोटा सा अंश देखिए -
'अगिया लागल बाटे अन बिनु पेटवा में
चाक लेखा नाचता कपार पियऊ निसइल।'
उनको पढ़ने के बाद ऐसा लगता है जैसे उन्होंने किसी गरीब के भूखे पेट को बहुत करीब से देखा हो।
'बेटी वियोग' रचना में बेटी की विवशता और मजबूरी की
कारुणिक कहानी देखिए -
'वृद्ध बाड़न पति मोर चढ़ल बा जवानी जोर
झरिया के अरीया से कटल हो बाबू जी'
इसमें अपनी बेटी को मां बाप एक ऐसे वर से शादी करा देते हैं जो बूढ़ा है, और यह बात बेटी किसी से भी नहीं जा पाती और अंदर ही अंदर कूढ़ती रहती है ।'बेटी वियोग' यह देखने को मिलता है।
'विधवा विलाप' नाटक का एक मार्मिक अंश देखिए-
जो कोई दाता हो दिलदार भिखारी की आसरा कर द पार
नईया अटकल बा मॅंझधार भूॅंकत बीत गईल दिन चार
एक विधवा औरत की क्या विवशता होती है कितना दर्द झेलना पड़ता है यह सिर्फ एक विधवा औरत से पूछने पर ही पता चल सकता है। कैसे लोग उसे सती होने पर मजबूर कर देते हैं। किसी मांगलिक कार्यक्रम में उसकी परछाई तक नहीं पड़ने दी जाती है।भिखारी ठाकुर मंच के माध्यम से इन समस्याओं को उठाते थे।
मित्रता की परिभाषा को परिभाषित करते हुए उनके रचना का एक रूप है-
'सिंहन के झुंड नाही, नाही चमन बिनु पात
साधु के झुंड नाही, हीरा ना हाट बिकात
जैसे शेर झुंड में नहीं होता है और बगीचा बिना पत्तों का नहीं होता है, साधु झुंड में नहीं रहते हैं और हीरा बाजार में नहीं बिकता है ठीक वैसे ही मित्रता सबसे नहीं की जाती है मित्र कोई कोई होता है।जिससे थोड़ी बहुत बातचीत हो जाए उसे मित्र नहीं समझना चाहिए।
भोजपुरी के लिए अतुलनीय काम करने के बाद और भोजपुरी में अपना स्थान बनाने के बाद भिखारी ठाकुर 84 वर्ष की उम्र 10 जुलाई 1971 दिन शनिवार को नश्वर शरीर छोड़कर स्वर्ग सिधार गए।उनके जयंती के अवसर पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।