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लोकतंत्र का बदलतता परिवेश : वर्तमान दौर की राजनीति का स्वरूप "सत्ताशक्ति और पैसा सर्वशक्तिमान,दलबदलू नेताओ के वसूल भी बिकाऊ - कल्याण सिंह

 



बेल्थरारोड बलिया ।। परिवर्तन संसार का नियम हैं, और परिवर्तन ही अटल सत्य और शाश्वत हैं। वर्तमान कालखंड मे सामाजिक जीवन के विभिन्न परिवेश मे आमूलचूल परिवर्तन हुआ हैं। इस परिवर्तन से आज का राजनैतिक रूप भी अछूता नही हैं । पुरातन काल खंड मे जिस लोकतंत्र मे राजनीति हमेशा जनता की सेवा भाव, राष्ट्र निर्माण, का साधन होती थी । तो दूसरी तरफ राजनीति मे बेदाग छवि, प्रबुध्, विदुषी, विद्वान, सदन से लेकर सड़को पर सत्ता को आँख दिखाने का काम करते थे। परंतु आज राजनीति तथा नेता  कही न कही सिर्फ सत्ता के इर्द- गिर्द दिखाई दे रहे हैं। अगर यह कह दिया जाए की नेताओं का उसूल का भी उचित मूल्य मिल जाये तो वह उसको भी बेच सकते हैं तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। वर्तमान राजनीति मे नैतिक मूल्यों, आचरण, ईमानदारी, शिक्षा, सभ्यता, की अब कोई जगह नही दिख रही हैं। आज पालीटिक्स् शब्द का स्वरूप ही बदल गया हैं, यथा कई को तो जनता के खून चूसने वाले कीड़े भी कहे तो अतिश्योक्ति नही होगी। 



आज की राजनीति सिर्फ प्रबंधकीय, प्रबंध और प्रबंधन का खेल हो चुकी हैं । संघर्ष के दौर से निकल कर राजनीति के अर्श पर पहुंचने के रास्ते हाशिये पर हो गये हैं। राजनीति मे पूँजी एक बड़ा माध्यम  बन गयी हैं,साथ ही साथ जिस तरीके से परिवारवाद, पूरे लोकतंत्र मे हावी होता जा रहा हैं, वह आगे के दौर की राजनीति के लिए,लोकतंत्र के लिये अत्यंत घातक साबित होगा। 

परिवारवाद ,छात्रसंघ पर प्रतिबंध लोकतंत्र के लिये घातक

राजनीति मे परिवारवाद  की जड़े तब अपना पैर पसारना शुरू कर दी ,जब देश की अहम सरकारों ने महाविद्यालय और विश्वविद्यालय मे छात्रसंघ पर एक सोची- समझी नीति के तहत ताला लगाकर छात्र राजनीति को तहस- नहस कर दिया । जबकि छात्र संघ संसदीय राजनीति की नर्सरी होती हैं, जिसमे से पढ़ने और लड़ने वाले छात्र देश की राजनीति की दशा और दिशा को तय करते थे। परंतु 2007-2012 के बीच मे लिंगदोह कमेटी के नियमो ने छात्र राजनीति को अपंग बना दिया। धीरे -धीरे सभी सरकारों ने छात्र राजनीति को कमजोर ही किया क्योकि उन्हे डर था कि सामाजिक मुद्दों पर सदन से सड़क पर लड़ने वाला युवा को आज का समाज अपना नेता मान लेगा क्योकि वो आमजन की आवाज हैं। समाज मे संघर्ष की राजनीति को कुचलने के लिए ही छात्र संघ तथा आंदोलनों पर कड़े प्रहार किये गए। उन्हे नष्ट करने के भरपूर प्रयास हुए। इसका सिर्फ एक मकसद था कि राजनीति मे राजघराने तथा राजवाड़े परिवार के अपने लोगो की भागीदारी को बढ़ाना ही उनका अंतिम लक्ष्य रहा। 

जबकि लोकतंत्र मे डॉ राममनोहर लोहिया जी कहा करते थे कि " लोकतंत्र मे राजा केवल रानी के पेट से पैदा नही होता हैं, मेहतरानी के गोद से भी पैदा होता हैं " । परंतु आज स्थितियां उलट गयी हैं। नेता का बेटा- बेटी और परिवार ही नेता बन पा रहा हैं,जबकि  कार्यकर्ता का बेटा- बेटी सिर्फ कार्यकर्ता ही रह कर सिमट जा रहा हैं, जबकि पहले के कार्यकर्ता ही नेता बनाते थे और नेता ही कार्यकर्ता को भविष्य मे नेता बनाता था । 

आजादी के बाद से सदन में घटता युवाओं का प्रतिनिधित्व

इस भयानक तस्वीर को एक आकड़ो से स्पष्ट रूप से साबित किया जा सकता हैं कि आज राजनीति मे परिवारवाद का कितना वर्चस्व हो चुका हैं। जब देश मे सन् 1952 मे चुनाव हुये तो देश की संसद मे युवाओं का प्रतिनिधित्व 26 प्रतिशत के आस पास था। आज वर्तमान परिवेश मे देश की राजनीति मे सदन मे प्रतिनिधित्व मात्र 6.7 प्रतिशत के आस ही 40 वर्ष के कम आयु के हैं। जिसमे की करीब 70 प्रतिशत यानी 5-6 प्रतिशत केवल राजनीतिक घराने और पार्टियों के परिवार के लोग नेतृत्व कर रहे हैं। इसका मूल कारण यह हैं कि उन्होंने संघर्ष रूपी राजनीति का अंत कर दिया और वर्तमान कालखंड की राजनीति मे पूंजी, फैशन, बाहुबल के दम पर परिस्थितियों को मोड़ दिया। 

दलबदलू नेताओ के वसूल भी बिकाऊ

आज की राजनीति मे वह उन चीजों को अपनाने लगा हैं, जिनके जरिये वह सोचता हैं कि जनता आसानी से उसके बहकावे मे आ जायेगी। आज अगर राजनीति मे सत्ता एक राजनीति करने की अमूल शक्ति हैं, वही दूसरी तरफ पैसा सर्वशक्तिमान बन चुका हैं। आज निश्चित रूप से वर्तमान राजनीति का दृष्टिकोण बदल गया हैं। "ढोंगी तथा दलबदलू नेताओं के लिए 'उसूल' भी एक बिकाऊ चीज हैं, अगर उसे उसका सही दाम मिल जाये।"

(यह लेखक कल्याण सिंह के स्वयं के विचार है ।)