होली पर विशेष : तुम मेरी ये ख्वाहिश भोली
होली पर विशेष : तुम मेरी ये ख्वाहिश भोली
प्रस्तुति-मधुसूदन सिंह
बलिया ।। होली पर यहां कुछ चुनिंदा कविताओं को प्रस्तुत किया जा रहा है । हमे उम्मीद है कि यह प्रस्तुति निश्चित ही आप लोगो को पसंद आएगी ।
तुम मेरी ये ख्वाहिश भोली
बैर वैमनस्य भूल कर
मनाओ तुम अब की होली
ईर्ष्या और द्वेष की जो लकड़ियाँ
लादे फ़िर रहे हो तुम पीठ पर
उनका दहन कर डालो इस बार
और जश्न मनाओ प्रेम की जीत पर
नहीं चाहता है लेना कोई
तुम्हारा खज़ाना अनमोल
मग़र यूँ नज़र न फेरो अपनों से
चाहते हैं जो सिर्फ़ प्यार के दो बोल
प्रेम और सम्मान का तुम
अपनों के माथे पर लगा गुलाल दो
भूल कर पुरानी सब बातें
गले लगा कर रिश्तों को संभाल लो
हर रिश्ते का रंग होगा शामिल
तभी तो मन भाएगी होली
खेलोगे जब हर्षोल्लास के संग
तो यादगार बन जाएगी होली
( भावना तोमर)
कुछ एसा अदभुत चमत्कार अबकी होली में हो जाये,
कुछ ऐसा अदभुत चमत्कार हो जाये
भ्रष्टाचार स्वाहा, महगाई,झगड़े, लूटमार सब लाज शर्म को छोड़ छाड़,
हम करें प्रेम से छेड़ छाड़ गौरी के गोरे गालों पर ,
अपने हाथों से मल गुलाल जा लगे रंग,
महके अनंग,हर अंग अंग हो सरोबार इस मस्ती में,
हर बस्ती में,बस जाये केवल प्यार प्यार दुर्भाव हटे,
कटुता सिमटे,हो भातृभाव का बस प्रचार अबकी होली में हो जाये,कुछ एसा अदभुत चमत्कार ।।
(मदन मोहन)
अच्छा हुआ दोस्त जो तूने होली पर रंग लगा कर हंसा दिया
वरना अपने चेहरे का रंग तो महंगाई ने कब का उड़ा दिया
आई होली ख़ुशी का ले के पयाम
आप सब दोस्तों को मेरा सलाम
सब हैँ सरशार कैफो मस्ती मेँ
आज की है बहुत हसीँ यह शाम
सब रहें ख़ुश यूँ ही दुआ है मेरी
हर कोई दूसरोँ के आए काम
भाईचारे की हो फ़जा़ ऐसी
बादा-ए इश्क़ का पिएँ सब जाम
हो न तफरीक़ कोई मज़हब की
जश्न की यह फ़ज़ा हो हर सू आम
अम्न और शान्ती का हो माहोल
जंग का कोई भी न ले अब नाम
रंग मे अब पडे न कोई भंग
सब करें एक दूसरे को सलाम
रहें मिल जुल के लोग आपस में
मेरा अहमद अली यही है पयाम
( डा अहमद अली बर्क़ी)
बात छोटी सी है पर हम आज तक समझे नही
दिल के कहने पर कभी भी फ़ैसले करते नहीं
सुर्ख़ रुख़्सारों पे हमने जब लगाया था गुलाल
दौड़कर छत्त पे चले जाना तेरा भूले नहीं
हार कुंडल , लाल बिंदिया , लाल जोड़े मे थे वो
मेरे चेहरे की सफ़ेदी वो मगर समझे नहीं
हमने क्या-क्या ख़्वाब देखे थे इसी दिन के लिए
आज जब होली है तो वो घर से ही निकले नहीं
अब के है बारूद की बू चार -सू फैली हुई
खौफ़ फैला हर जगह आसार कुछ अच्छे नहीं.
उफ़ ! लड़कपन की वो रंगीनी न तुम पूछो `ख़याल'
तितलियों के रंग अब तक हाथ से छूटे नहीं
रंग में रंग मिल गए
मन से मन मिल गए,
होली में सब रंग खिल गए।
सब के मन खिल गए
दिल से दिल मिल गए,
होली में सब घुल मिल गए।
पिचकारियों में रंग भर गए
रंग गुलाल उड़ गए,
होली में सब घुल मिल गए।
तुम आये, कनकाचल छाये
तुम आये, कनकाचल छाये,
ऐ नव-नव किसलय फैलाये।
शतशत वल्लरियाँ नत-मस्तक,
झुककर पुष्पाधर मुसकाये।
परिणय अगणन यौवन-उपवन,
संकुल फल के गुंजन भाये;
मधु के पावन सावन सरसे,
परसे जीवन-वन मुरझाये।
रवि-शशि-मण्डल, तारा-ग्रह-दल,
फिरते पल-पल दृग-दृग छाये,
मूर्छित गिरकर जो अनृत अकर,
सुषमा के वर सर लहराये।
चेतना
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल,
उड़कर यंत्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल !
अवसर तेरे लिए खड़ा है,
फिर भी तू चुपचाप पड़ा है ।
तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है,
पल पल है अनमोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
बहुत हुआ अब क्या होना है,
रहा सहा भी क्या खोना है?
तेरी मिट्टी में सोना है,
तू अपने को तोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
दिखला कर भी अपनी माया,
अब तक जो न जगत ने पाया;
देकर वही भाव मन भाया,
जीवन की जय बोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
तेरी ऐसी वसुन्धरा है-
जिस पर स्वयं स्वर्ग उतरा है ।
अब भी भावुक भाव भरा है,
उठे कर्म-कल्लोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
प्रश्न
सिर क्या सगर्व फिर हम ऊँचा न कर सकेंगे?
जो घाव हो गये हैं क्या अब न भर सकेंगे?
इस भूमि पर कि जिस पर सुर भी कृतार्थ होते,
बनकर मनुज न फिर क्या अब हम विचर सकेंगे ?
वह त्याग जो प्रतिष्ठित था उच्च आत्म पद पर
खोकर उसे अहो! क्या अब हम न धर सकेंगे?
वह वीरता कि थी जो गम्भीर धीरता में
वर के समान हम क्या अब फिर न वर सकेंगे ?
उपकार जो कि पर को अपना बना चुका था
करके स्वदेश का क्या दुख हम न हर सकेंगे ?
उस मार्ग से कि जिससे पूर्वज गये हमारे
जाकर न मृत्यु से क्या अब हम न डर सकेंगे?
भाण्डार शील के जो रहते सदा भरे थे
भरकर भवाब्धि को क्या अब हम न तर सकेंगे ?
पूछें किसे दयामय, तू ही हमें बता दे
फिर आपको अमर कर क्या हम न मर सकेंगे ?