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जन्मदिन को बहुत उल्लास के साथ मनाती थीं महीयसी महादेवी वर्मा


 


 घर पर एकत्र होते थे नगर के जाने-माने साहित्यकार और कवि


डा० भगवान प्रसाद उपाध्याय

प्रयागराज।।छायावाद की प्रमुख स्तंभ  ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त महीयसी  महादेवी वर्मा जी का जन्मदिन उनके घर पर होली के दिन बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता था और शाम ढलने से पूर्व ही नगर के जाने-माने साहित्यकार और कवि वहां एकत्र हो जाते थे।  होलिका  दहन  से पूर्व सभी साहित्यकारों की नजर उतारी जाती थी और फिर वहां प्रसाद पाने के बाद ही लोग वापस आते थे।

 1985 में जब मैं  साप्ताहिक नवांक  का सह संपादक था , श्रीमती शकुंतला सिरोठिया जी के यहां निरंतर आना जाना होता था। उनके घर के पास ही नेता नगर चौराहे पर वैद्य  पृथुराज सिंह के मकान में मैं किराए पर रहता था। वहां आसपास कई विद्यार्थी और साहित्यकार भी रहते थे। प्रायः श्रीमती सिरोठिया जी के यहां लोग साहित्यिक चर्चा और उनका आशीर्वाद पाने के लिए आया जाया करते थे। होली से पूर्व ही योजना बन गई थी कि इस बार होलिका दहन के दिन महीयसी  महादेवी वर्मा जी के घर चलना है और उनका आशीर्वाद प्राप्त करना है । यद्यपि उनसे कई आयोजनों में और इसके पहले भी कई बार स्नेहिल आशीर्वाद मिल चुका था किंतु मैं यह प्रस्ताव सुनकर बहुत प्रफुल्लित हो उठा था । उस दिन डॉक्टर संतकुमार जी कैलाश कल्पित जी और पंडित नर्मदेश्वर चतुर्वेदी तथा श्याम मोहन त्रिवेदी जी भी श्रीमती सिरोठिया जी के यहां बैठे थे। श्रीमती शकुंतला सिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार का आयोजन संपन्न हो चुका था और विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों की कतरन एकत्र की जा रही थी। मैं भी साप्ताहिक नवांक  लेकर वहां पहुंचा था जिसमें मैंने आधे पृष्ठ से अधिक पुरस्कार सम्मान समारोह को स्थान दिया था।

  चार - पांच  दिन के बाद ही होलिका दहन था। प्रायः मैं  किसी भी पर्व पर घर चला आता था किंतु इस बार की होली मेरे लिए विशेष हो गई थी और होली के दिन मन बहुत उत्साहित था ।  उस दिन शाम को सभी लोग  अशोकनगर श्रीमती महादेवी वर्मा जी के आवास पर पहुंच चुके थे। हम लोगों के पहुंचने के पश्चात कैलाश गौतम और अमृत राय जी सपत्नी पधारे थे। उन्नत ललाट और गोरा चेहरा उपस्थित सभी लोगों में सबसे अधिक लंबे आकर्षक व्यक्तित्व  और उनकी अर्धांगिनी भी अनुपम सुंदरी लग रही थी। उनका आवास धूप छांव भी बहुत पास में ही था। लोगों ने उनका आवभगत किया,डॉक्टर संत कुमार  जी  मुझसे पूंछ बैठे - ' क्यों  उपाध्याय !  इन्हें जानते हो ? मैंने नकारात्मक सिर हिलाया तो वे परिचय कराते हुए बोले -  यह श्री अमृत राय जी हैं बहुत अच्छे उपन्यासकार।  मैं तुरंत बोल पड़ा  - " अरे मैंने तो अभी ही इनका उपन्यास अलबम पढ़ा था "  मैंने  दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम की मुद्रा में सिर झुकाया और उन्होंने मेरा नाम पूछा फिर कहा  - उपन्यास के प्रेमी लगते हो , और किसका किसका उपन्यास पढ़ा है।

 मैंने विनम्र भाव से उन्हें बताया कि वृंदावन लाल वर्मा जी और आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी मुझे बहुत अधिक प्रिय लगते हैं। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास भी मैंने कर्मभूमि गोदान पढ़ा  है और आप का एलबम मुझे बहुत अच्छा लगा। कभी-कभी कर्नल रंजीत और गुलशन नंदा का भी उपन्यास पढ़ लेता हूं किंतु साहित्यकारों में  आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी बहुत अधिक पसंद आते हैं। कुछ देर के उपरांत महादेवी जी आयी उनके हाथ में पूजा की थाली थी और एक कटोरे में सरसों भरी हुई थी। मेरी जिज्ञासा और कौतूहल बढ़ता जा रहा था। सभी लोग उनके आंगन में पहुंचे। होलिका दहन स्थल पर जाने वालों के लिए यह अनिवार्य था कि वे सिर ढक कर जाएं। मेरे आगे कैलाश  गौतम जी थे और मेरे ठीक पीछे डॉक्टर संतकुमार जी थे। उन्होंने स्नेहवश मुझे आगे कर लिया था। जैसे ही माताजी के पास मैं पहुंचने वाला था डॉक्टर संत कुमार जी ने अपने जेब से अपनी रुमाल निकाली और मेरे सिर पर रख दिया। शायद वह यह आप चुके थे कि उपाध्याय के पास रुमाल नहीं है। डॉक्टर संतकुमार जी बोले  - मेरा छोटा भाई है। 

महादेवी जी मुस्कुराईं  और सिर पर सरसों घुमा कर उन्होंने होलिका को समर्पित कर दिया। यह सभी साहित्यकारों के साथ हो रहा था और फिर सब की नजर उतारने के बाद आपस में एक दूसरे से हास परिहास और साहित्यिक चर्चा शुरू हो गई। महादेवी जी द्वारा नजर उतारने का यह अद्भुत और अपूर्व स्नेह देखकर मैं अभिभूत हो गया। वे साक्षात ममतामयी  मां की प्रतिमूर्ति के रूप में उपस्थित थीं। जैसे वाग्देवी सरस्वती स्वयं अपने वरद पुत्रों को आशीर्वाद देने के लिए सरसों रूपी दाने से उनके सभी ग्रह दोष समाप्त करने का उपक्रम कर रही  थीं।पूर्णतया धवल वस्त्र में सुशोभित महादेवी जी सरस्वती के रूप में ही वहां विराजमान थी।

इसके  पश्चात  डॉ राम जी पांडेय  वहाँ  उपस्थित  सभी  साहित्यकारों के आवभगत में जुट गए। सुमधुर जलपान का भी क्रम शुरू हुआ और अनेक कवि व साहित्यकार वहां एकत्र हो चुके थे। परस्पर एक दूसरे का हाल-चाल व सुख दुख जान रहे थे आदरणीय नरेश मिश्रा जी ने मुझसे टोका  - उपाध्याय तुम कई महीने से आकाशवाणी की ओर नहीं आए ! क्या तुम्हारा कोई कार्यक्रम नहीं लगा क्या ? मैंने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया तो वे मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले - बेटा कभी आकाशवाणी की तरफ आना होगा तो मुझसे अवश्य मिलना।इस बीच श्री कैलाश गौतम जी बोल पड़े  - आना   होगा  क्या , भगवान तुम ऐसा करना कल या परसों समय निकाल कर आ जाना। गौतम जी मुझे बहुत स्नेह देते थे कई बार मेरे घर भी जा चुके थे। मुझे छोटे भाई की तरह ही दुलार करते थे भला अपने बड़े भाई का आदेश छोटा भाई कैसे ठुकरा सकता था  मैंने सहमति व्यक्त कर दी।

 उस अद्भुत साहित्य समागम में सभी एक दूसरे से ऐसे आत्मीयता व्यक्त कर रहे थे जैसे बहुत दिनों के बाद कोई परिवारीजन बिछड़ा हुआ हो और अचानक मिल गया हो।  पं० राजाराम शुक्ला और श्याम मोहन त्रिवेदी जी किसी पुस्तक के बारे में बहुत देर तक चर्चा करते रहे और बाल साहित्य पुरस्कार समारोह की सराहना वहां उपस्थित सभी साहित्यकारों ने मुक्त कंठ से की। श्रीमती सिरोठिया जी द्वारा स्थापित यह पुरस्कार मात्र 2 वर्षों में ही बहुत अधिक चर्चित हो गया था और उनकी अभिषेक श्री संस्था जिसका मैं उस समय सचिव हुआ करता था पूरे नगर में बहुत आदर और सम्मान के साथ चर्चित हो रही थी। कुछ देर के उपरांत वहां से चलने का भी उपक्रम शुरू हुआ। बाहर निकल कर कई लोगों ने रिक्शा तलाशना शुरू कर दिया,कुछ रिक्शे  आए और उन पर दो दो लोग बैठकर प्रस्थान करने लगे।

होली मनाने का यह अपूर्व दृश्य मेरे मानस पटल पर बहुत दिनों तक घूमता रहा  फिर दूसरे  वर्ष आयोजन में ना जा सका और तीसरे वर्ष भी जाने का अवसर नहीं मिला। उन्नीस सौ सत्तासी मे मैं दैनिक न्यायाधीश में संपादकीय विभाग में आ गया था। उसी वर्ष सितंबर का दूसरा सप्ताह पूरे प्रयागराज के लिए बज्राघात सिद्ध हुआ। 11 सितंबर को श्रीमती महादेवी वर्मा ने महाप्रस्थान कर लिया था पूरा शहर शोक मगन हो गया था।

डॉ भगवान प्रसाद उपाध्याय 

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