फिराक गोरखपुरी की 127 वीं जयंती 28 अगस्त पर विशेष :संस्मरण -ये माना जिन्दगी है चार दिन की,बहुत होते हैं यारों चार दिन भी
डॉ० भगवान प्रसाद उपाध्याय
प्रयागराज।।
ये माना जिन्दगी है चार दिन की,
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी।
उपरोक्त मशहूर पंक्तियाँ फक्कड़ और अलमस्त साहित्यकार फिराक गोरखपुरी की हैं जो छियासी वर्ष की मस्तमौला जिन्दगी को अलविदा कह कर संसार के बन्धन से मुक्त हो गये थे। अट्ठाइस अगस्त अठारह सौ छियानबे में जन्मे रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी जी तीन मार्च उन्नीस सौ बयासी को गोलोक वासी हुए थे। जीवन पर्यन्त अपनी जिंदगी के अनेक उतार चढ़ाव के बाद भी फिराक साहब बहुत ही जिन्दादिली के साथ जीवन जिया। वे कहते हैं -
सच तो ये है बड़े आराम से हूँ
तेरे हर लहजा सताने की कसम
विश्व विख्यात साहित्यकार ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी अपने युग के अलमस्त और फक्कड़ साहित्यकार थे। उनसे जो भी मिलता वह उनका लोहा मानता। साहित्य जगत ने उनके निधन के बाद उन्हीं की पंक्तियों से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की थी -
मैं देर तक तुझे खुद ही न रोकता लेकिन
तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है
आज इकतालिस वर्ष हो गये उनके निधन को फिर भी साहित्य जगत उन्हें सादर नमन करता है। उनके निधन के एक वर्ष पूर्व उनसे दो बार मिलने का सौभाग्य मिला है। जनवरी 1981 में अपनी त्रैमासिक पत्रिका साहित्यांजलि का प्रवेशांक लेकर जब मैं अपने मित्र अजीत कुमार साहिल के साथ विख्यात पत्रकार श्री श्याम कुमार जी के पास भेंट करने गया तो उन्होंने हम दोनों का बहुत उत्साह वर्धन किया और साहित्य की बारीकियों पर बहुत देर तक चर्चा की । यद्यपि उनसे 3 साल पहले हम दोनों लोग 1978 में मिले थे और उनसे एक लंबी भेंटवार्ता ली गई थी जो गढ़वाल से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक युवा स्वप्न में प्रकाशित हुई थी । उस दिन श्री श्याम कुमार जी ने बताया कि लेखन और संपादन में कितने आरोह अवरोह होते हैं।बहुत संघर्ष करना पड़ता है, तब कोई पत्रिका जीवंत बन पाती है। उनके सामने शीशे की मेज पर रखी धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका के बारे में भी उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण तथ्य विस्तार से बताया। कुछ देर बाद बहुत स्नेह से कहा - उपाध्याय तुम कल दोपहर में फिर आ जाना एक जगह चलना है, मेरे साथ रहोगे तो मुझे अच्छा लगेगा । उनके पास पत्रिका का अंक देने के पश्चात हम दोनों लोग वहां से पुराना बैरहना आ गए और अजीत कुमार साहिल के घर पर अगले अंक की तैयारी के संबंध में बहुत देर तक योजना बनती रही । दूसरे दिन मैं फिर विवेकानंद मार्ग स्थित परी भवन पहुंच गया। रंग भारती उन दिनों बहुत ही चर्चित और ख्यातिलब्ध संस्था थी। उसकी गतिविधियां पूरे प्रदेश में चर्चा का विषय बनती थीं । मुझे देखते ही श्री श्याम कुमार जी ने कहा कि - " बैठो अखबार पढ़ो! मैं तैयार होकर आता हूं " और कुछ ही मिनट के उपरांत वह स्वयं मेरे सामने चाय और बिस्कुट रखकर फिर अंदर चले गए। मैंने धीरे-धीरे चाय पी और कुछ अखबार पलटता रहा। मैं सोच रहा था कि शायद आज बहादुर कहीं व्यस्त होगा ( बहादुर श्री श्याम कुमार जी का बहुत ही विश्वसनीय और अनन्य सहयोगी था और उनके यहां ही रहता था ) इसीलिए भाई साहब ने स्वयं चाय बनाई होगी और मेरे चाय समाप्त करते करते श्री श्याम कुमार जी आ गए और बोले - चलो आज तुम्हें एक महान शायर से मिलवाता हूं।
तुम कभी फिराक साहब से मिले हो ? मैंने इंकार की मुद्रा में सिर हिलाया तो वे हंस पड़े और बोले - " तुम तो यहां बहुत साहित्यकारों से मिलते रहते हो भेंट वार्ताएं लेते हो , आश्चर्य है फिराक साहब से नहीं मिले?
चलो उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है इसलिए मैं उन्हें देखने जा रहा हूं, तुम साथ रहोगे तो जन संसद साप्ताहिक समाचार पत्र के बारे में रास्ते में तुमसे कुछ चर्चा हो जाएगी ।
मेरी खुशी का ठिकाना न था, मैं अभिभूत हो गया। उनके साथ नीचे उतरा और उनकी स्कूटर पर बैठ कर दोनों लोग विश्वविद्यालय की ओर चल पड़े । रास्ते में उन्होंने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र जन संसद के बारे में कई योजनाएं बताईं और कहा कि - " तुम इसके लिए काम करो तुम्हारी लेखनी पर मुझे भरोसा है , जहां कोई समस्या होगी मैं तो हूं ही । "
मैंने भी बहुत उत्साह के साथ हामी भर दी कुछ देर के बाद हम लोग लक्ष्मी टॉकीज चौराहे से आगे बढ़े और उन्होंने बताया कि यहां बहुत से अच्छे साहित्यकार रहते हैं विश्वविद्यालय विद्वानों और ख्यातिलब्ध लेखकों का बहुत बड़ा केंद्र है । यहीं पर डॉ मोहन अवस्थी जी सहित विश्व विद्यालय के कई विद्वान साहित्यकार रहा करते हैं। कुछ देर बाद फिराक साहब के दरवाजे पर पहुंचकर उन्होंने स्कूटर खड़ी की और कॉल बेल बजाई। अंदर से रोबीली आवाज गूंजी - कौन है ? इसी के साथ एक लड़का निकला और उसने दरवाजा खोला।
श्याम कुमार जी ने कहा - फिराक साहब से कहिए श्याम कुमार आए हैं। अंदर से आवाज आई - "अरे तो तुम्हें पूछने की क्या जरूरत है ? भाई श्याम कुमार तुम निसंकोच अंदर आ सकते हो "मैं भी पीछे पीछे घुसा तो फिराक साहब बरामदे में खड़े थे ।श्याम कुमार जी से उन्होंने पूछा- " यह छात्र कौन है "?
श्याम कुमार जी ने मेरा नाम और संक्षिप्त परिचय बताया और कहा कि यह मेरे साथ जन संसद अखबार में सहयोगी हैं । फिराक साहब एकदम धवल सफेद धुली हुई लुंगी और ढीली ढाली बनियान पहने आराम कुर्सी पर बैठ गए । बगल में हम लोग भी बैठे , श्याम कुमार जी ने उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा और बताया कि -" कल ही समाचार मिला कि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, इसलिए आपको देखने चला आया "
फिराक साहब हंसे और बोले - " अच्छा किया ! आजकल तुम काका हाथरसी के आयोजन में व्यस्त हो इसलिए समय ही कहां है " हां तो इनका क्या नाम बताया था ? फिर वह मेरी ओर मुखातिब हुए।
श्याम कुमार जी ने दोबारा परिचय दिया और उनके कुशल क्षेम के पश्चात साहित्य की चर्चा छिड़ गई। दोनों लोग आपस में बहुत देर तक वार्ता करते रहे मैं श्रोता के रूप में बैठा रहा। जिस बालक ने हम लोगों के आने पर दरवाजा खोला था वह इसी बीच तीन गिलास पानी और बिस्कुट इत्यादि रख गया था। फिराक साहब ने कहा " लो विश्वबंधु नाश्ता करो!" श्याम कुमार जी ने फिर टोका - यह विश्वबंधु नहीं भगवान उपाध्याय हैं।
फिराक साहब बोले - अरे ठीक है भाई दोनों एक ही हैं। अभी अभी विश्वबंधु दिल्ली से आए थे बहुत देर तक यहां थे इसलिए उन्हीं का नाम बार-बार याद आ जाता है। श्याम कुमार जी ने उन्हें आयोजन में आने का निमंत्रण पत्र भी दिया तो हंसते हुए वह बोले - " देखो श्याम कुमार भाई, स्वास्थ्य ठीक होने पर ही मैं कुछ कह सकता हूं। कार्यक्रम से एक दिन पहले मुझे फोन कर लेना, आना होगा तो बता दूंगा "। अब फिर शेरो शायरी पर चर्चा छिड़ गई और फिराक साहब ने कहा कि - " श्याम कुमार,तुम सांस्कृतिक आयोजन बहुत करते हो अनेक कलाकारों को सम्मानित भी करते रहते हो। मैं तुम्हारे आयोजनों की बड़ी तारीफ सुनता हूं बहुत अच्छा लगता है "।
श्री श्याम कुमार जी ने मुस्कुरा कर कहा - " यह सब आप मनीषियों के आशीर्वाद का प्रतिफल है कि मैं कुछ कर पाता हूं और लोगों का सहयोग भी मिल जाता है। "।सहसा फिर फिराक साहब बोल पड़े - " विश्वबंधु तुम क्या क्या लिखते हो " मुझे तीसरी बार इस नाम से बुलाने पर मैं कुछ झेंप सा गया और फिर मैंने बताया - जी,मेरा नाम भगवान प्रसाद उपाध्याय है। मैं साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में अभी नया नया लिखना सीख रहा हूं।कुछ गीत लघु कथाएं कविताएं और कहानियां लिख रहा हूँ।आप जैसे विद्वान मनीषियों और साहित्यकारों से मिलने का बहुत शौक है ।आज आपके दर्शन करके धन्य हूं " ।
फिराक साहब बीच में ही रोककर बोले - अरे मैं कोई देवता थोड़ी हूं , फिर ठठाकर हंस पड़े।हम दोनों लोग भी उनकी हंसी में शामिल हो गए।बहुत देर तक उनके साथ समय व्यतीत करने का अवसर मिला । बीच-बीच में आराम कुर्सी से कभी वे दोनों पैर फैला देते कभी झूलने की मुद्रा में तो कभी सावधान की मुद्रा में बैठते।
शेरो शायरी के बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी उन दिनों नहीं थी , इसलिए मैं उन दोनों विद्वानों की बातें मौन होकर सुनता रहा। बीच - बीच में हां हूं अवश्य कर देता था। श्याम कुमार जी उनसे विदा लेकर जब चलने लगे तो उन्होंने हंसते हुए फिर कहा - " ठीक है ठीक है विश्वबंधु को नहीं नहीं भगवान प्रसाद को भी अगली बार जरूर लेकर आना "।फिर हम सब लोग जोर से हंस पड़े।बाहर आकर श्री श्याम कुमार जी ने मुझसे कहा -" जानते हो पूरे देश का इकलौता महान शायर है, जिसे अंग्रेजी भाषा पर भी पूर्ण अधिकार है और हिंदी साहित्य पर भी।
यह भले ही शायर के रूप में प्रसिद्धि पा चुके हैं , किंतु इन्होंने गद्य साहित्य में भी बहुत अच्छा लिखा है और इन्हें जो पुरस्कार मिले हैं बहुत पहले मिलने चाहिए थे। ऐसा महान व्यक्तित्व हमारे शहर में है यह हम लोगों के लिए बहुत गर्व की बात है। देश की सुप्रसिद्ध प्रतिभाओं से मिलने की कला कोई श्याम कुमार जी से सीखे।
मैं भाई श्याम कुमार जी की बातों से बहुत ही आत्ममुग्ध हो चुका था और बातें करते करते हम लोग कब रंग भारती कार्यालय विवेकानंद मार्ग पर पहुंच गए समय का पता ही ना चला । मैं उन दिनों कभी-कभी भाई श्याम कुमार जी के यहां रात्रि विश्राम भी कर लेता था इसलिए उन्होंने पूछा - आज रुकोगे या घर जाओगे ? मैंने कहा - भैया मैं घर जाऊंगा , इतनी महान विभूति से आपने साक्षात्कार कराया है , मैं आपका बहुत आभारी हूं । मैंने इन्हें पढ़ा तो बहुत था किंतु देखने की इच्छा आज पूरी हुई वह भी आपके सानिध्य में।
श्याम कुमार जी बोले - " देखो तुम्हारी यह भावना ही तुम्हें सबको अपना बना लेती है । मुझे विश्वास है तुम आगे चलकर कुछ अच्छा कर पाओगे। सुना है तुमने पुस्तकालय बहुत अच्छा खोला है। कभी दिखाओ, मैं तुम्हारे गांव चलना चाहता हूं " मैंने कहा - भैया मेरा सौभाग्य होगा आप आइए मेरे गांव मुझे भी बहुत अच्छा लगेगा।लगभग तीन महीने बाद पुनः एक दिन भाई श्याम कुमार जी ने कहा - चलो आज फिराक साहब से फिर मिलते हैं , सुना है उनकी तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब है। दूसरी बार जब हम लोग पहुंचे तो वहां कुछ और साहित्यकार पहले से ही उपस्थित थे। इस बार कुछ विशेष बात नहीं हो पाई क्योंकि चिकित्सकों ने फिराक साहब को अधिक बोलने से मना किया था। वह सब की कुशल क्षेम पूछते और फिर स्मृतियों में डूब जाते। हम लोगों को देखकर एक मृदु मुस्कान उनके चेहरे पर आई और फिर वह हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठाकर चुपचाप लेटे रहे। थोड़ी देर बाद श्याम कुमार जी ने कहा - चलो देख लिया। ईश्वर करेगा तो शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएंगे, तब हम लोग पुनः इनके पास आएंगे।
इसके बाद हम लोग वहां से सीधे सिविल लाइन सुभाष चौराहे पर आए जहां भाई साहब ने किसी को बुलाया था। मैं उन्हें जनता तो नहीं था , किंतु उन्हें कई बार परी भवन में देखा था। भैया जी ने उन्हें कुछ बातें बता कर जाने का संकेत किया और फिर हम लोग वहां से सीधे विवेकानंद मार्ग अपने कार्यालय पर आ गए। वह बहुत ही सक्रिय रहते थे और प्रयागराज में उनके पास समय का भी अभाव रहता था।
कई वर्षों तक मैं भाई श्याम कुमार जी से जुड़ा रहा और उनके आयोजनों में प्रतिभाग करता रहा। जब वह लखनऊ रहने लगे तो वहां भी जब कभी जाता उनके घर अवश्य जाता।आज भी उनका स्नेह मुझे निरंतर प्राप्त होता रहता है।
निवास :-- *पत्रकार भवन*
गंधियांव ,करछना,
प्रयागराज , उत्तर प्रदेश
पिन -- 212301
मो ० 8299280381
9935205341