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सातवें दिन अयोध्या से वन के लिये निकलना, केवट की भक्ति का गीत संगीत के माध्यम से हुआ बखान, प्रभु राम ने प्रयागराज में किया रात्रि विश्राम



मधुसूदन सिंह 


बलिया।। बाबा
बालखंडी नाथ के सानिध्य में प्रसिद्ध श्रीराम कथा वाचक पूज्य प्रेम भूषण जी महराज द्वारा सुनाई जा रही श्रीराम कथा के 7 वे दिन प्रभु श्रीराम के युवराज घोषित होने, महारानी केकई द्वारा प्रभु राम को 14 वर्ष के लिये वनवास, भरत को राजगद्दी का वचन चक्रवर्ती महराज दशरथ जी से लेने का प्रसंग से कथा की शुरुआत हुई। इसकी जानकारी होने पर रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने महल के अंदर जाकर देखा कि राजा अत्यन्त ही बुरी हालत में पड़े हैं। गोस्वामी जी कहते हैं रामजी ने आज अपने जीवन में पहली बार यह दुःख देखा, इससे पहले कभी उन्होंने दुःख सुना भी न था। कब माता केकई से महाराज के दुख का कारण मालूम हुआ तो  भगवान राम रोये नही हैं घबराये नही हैं। और भगवान राम की मुस्कान वैसी ही बनी हुई हैं।





मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू॥


 श्रीरामचन्द्र ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और कौशल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्रीरामचन्द्र ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्रीरामचन्द्र नहीं दिखायी दिये तो नगर निवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये।







भगवान ने चीर वस्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्रीरघुनाथ ने शीशम -वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे।
प्रात:काल श्रीराम ने रथ सहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गंगा जी के तट पर जाकर केवट राज को पार जाने के लिये अपनी नाव लेन के लिये कहते है तब केवट राज कहता है --
राम केवट को आवाज देते हैं - नाव किनारे ले आओ, पार जाना है।

 मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥




श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं है। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है। वह कहता है कि पहले पांव धुलवाओ, फिर नाव पर चढ़ाऊंगा।
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन ।।
(प्रभु राम ने माता जानकी और लखन लाल की तरफ देख कर बोले अब तो फंस ही गया हूँ , चरण धुलवाने ही पड़ेंगे । परन्तु जब जब मेरे चरण पखारे गये है कुछ न कुछ हुआ है । पहली बार समुद्र ने पखारा था तो आपका श्रीस्वरूप आया और दूसरी बार राजा जनक ने पखारा तो आप आयी , अब न जाने क्या होने वाला है ।)
कृपासिंधु बोले मुसुकाई, सोई कर जेहिं तव नाव न जाई
बेगि आनु जल पय पखारु, होत बिलम्ब उतारहि पारू ।।
 यह सुनते ही केवटराज प्रभु की आज्ञा लेकर पूरे परिवार को बुलाकर सबके साथ प्रभु के पाव पखार रहे है (यहां भाव यह है कि तीर्थ व सत्कर्म पूरे परिवार के साथ करना चाहिये, इससे परिवार का संस्कार श्रेष्ठत्व को प्राप्त होता है  ) ।
राघव चरन जलजात हो आजु केवट पखारे
  छोटे कठौता में आनि गंगाजल
पुलक प्रफुल्लित गात हो , आजु केवट ....
भरि अनुराग पलोटत पुनि पुनि
परसत हृदय जुड़ात हो , आज केवट ....
चूमि चूमि आँखन के अंसुवन धोवत
आनन्द उन न समात हो ,आजु केवट ...
पुनि पुनि पियत मुदित चरणोदक
बोलि घरनि शिशु भ्रात हो, आज केवट ...
बरसत सुमन हरषि नभ सुरगन
नर मुनि सिद्ध सिहात हो , आजु केवट...
सीता लखन चितई गिरिधर प्रभु
मधुर मधुर मुसुकात हो , आज केवट ....
गोस्वामी जी लिखते है --
अति आनन्द उमगि अनुरागा, चरन सरोज पखारन लागा ।।
पद पखारने से केवट भैया को आनन्द हुआ, अनुराग बढ़ा प्रेम बढ़ा -
पद पखारि जलु पानि करि आपु सहित परिवार
पितरू पारि करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ।।

पांव जब अपना पांव धुलवाते है तब प्रभु राम सीता और लखन जी को केवट गंगा पार उतारा ।
केवट उतरि दंडवत कीन्हा , प्रभुहि सकुचि एहि नहि कछु दीन्हा
पिय हिय की सिय जानन हारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी
कहेउ कृपालु लेहि उतराई, केवट चरन गहे अकुलाई ।।
     यहां बिंदु जी महाराज गाते है --
यह तो प्रेम की बात है उधौ, बन्दगी तेरे बस की नही है ।
  यहां सिर देके होते है सौदे, आशिकी इतनी सस्ती नही है , ये तो प्रेम ...
प्रेम वालो ने कब वक्त पूछा, किसकी पूजा तुम करते हो प्यारे ,
यहां पल पल में होती है पूजा ,सिर झुकाने की फुरसत नही है ,ये तो प्रेम की ...
जो असल मे है मस्ती में डूबे , उन्हें परवाह क्या जिंदगी की,
जो उतरती है चढ़ती है मस्ती, वो हकीकत में मस्ती नही है , ये तो प्रेम ....
जिनकी नजरो में है श्याम प्यारे,वो तो रहते है जग से न्यारे,
जिसकी नजरो में मोहन समाये, वो नजर फिर भटकती नही है , ये तो प्रेम की .....

 पार उतरने के बाद भगवान श्रीराम उतराई देने लगते है तो केवट मना करते हुए कहता है कि प्रभु एक नाविक दूसरे से उतराई नही लेता है । आज मैंने आपको उतारा है कल आप मुझको भवसागर से पार उतार दीजिएगा ।

गंगा-पार कर भगवान  प्रयागराज पहुंचे है ।

 केवट ने जब मात्र प्रभु के चरण को नेह के साथ पखारा तो उसकी चारो व्याधि/दरिद्रता दूर हो गयी । मिटे दोष - मिटे दोष , दर्शन करने से आंखों का दोष दूर हुआ ,दुख जो मन मे था समाप्त हुआ , भक्त दुख में भी सुख ढूंढ लेते है केवट ने मन की दरिद्रता को भगवान के। प्रेम से दूर किया ।
  कथा आगे बढ़ती है । प्रभु श्रीराम माता जानकी के साथ गंगा जी को पार करके प्रयागराज पहुंच कर साढ़े तीन करोड़ तीर्थो के राजा प्रयागराज की पूजा अर्चना करते है । भगवान इसके बाद भारद्वाज ऋषि के आश्रम पहुंचते है । सभी ऋषिमुनियों को यथोचित दंडवत प्रणाम करते है । इसके बाद माता सीता और लक्ष्मण जी को प्रयागराज की शोभा दिखाते और महात्म्य समझाते है ।