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नही रहे सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिन्देश्वर पाठक

 


नई दिल्ली।। सुलभ शौचालय यानी सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक, पद्मभूषण डॉ बिंदेश्वर पाठक का आज निधन हो गया। आज सुबह कार्यालय में 77 वें जश्ने आज़ादी का झंडोत्तोलन करने के बाद इनकी तबीयत खराब हुई और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली में देहांत हो गया। वे अस्सी वर्ष के थे। श्री पाठक के निधन पर पीएम मोदी ने शोक व्यक्त किया है।बिंदेश्वर पाठक की पहचान बड़े भारतीय समाज सुधारकों में से एक है। उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की, जो मानव अधिकारों, पर्यावरण स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों, अपशिष्ट प्रबंधन और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए काम करती है।

उन्होंने सुलभ शौचालयों को किण्वन संयंत्रों से जोड़कर बायोगैस निर्माण का अभिनव उपयोग किया, जिसे उन्होंने तीन दशक पहले डिजाइन किया था। जो अब दुनिया भर के विकासशील देशों में स्वच्छता के लिए एक पर्याय बन रहे हैं। उनके अग्रणी काम, विशेष रूप से स्वच्छता और स्वच्छता के क्षेत्र में,  वे विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारो से सम्मानित हुये थे।

         स्वच्छता के पुरोधा की बस बची है यादें 

 भारत में स्‍वच्‍छता के पुरोधा कहे जाने वाले बिंदेश्वर पाठक अब इस दुनिया में नहीं रहे। अब बस केवल उनकी याद है। जो अब हमेशा ताजा रहेगी। जब जब भारत में स्‍वच्‍छता और सफाई की बात आएगी, तब तब विंदेश्‍वर पाठक का नाम जरूर लिया जाएगा। भारत में बिंदेश्वर पाठक ही वह शख्स हैं जिनकी वजह से 2001 से 'वर्ल्ड टॉयलेट डे' मनाया जा रहा है। 

     ऐसे हुई सुलभ शौचालय की स्थापना 

शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि विदेश्वर पाठक ने आखिर सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना क्यों की? और इसके पीछे की कहानी क्‍या है? वह कौन सी ऐसी घटना थी जिसने उनके मन पर इतना गहरा असर डाला कि उन्होंने भारत ही नहीं दुनिया भर में सुलभ शौचालयों की एक चेन खोल दी। आज शायद ही भारत में कोई ऐसा शहर होगा जहां सुलभ इंटरनेशन शौचालय नहीं होंगे। आइये आज हम आपको वही कहानी सुनाते हैं। जिसकी वजह से बिहार के सामान्‍य से पंडित परिवार में जन्‍मे विंदश्‍वर पाठक अतीत के पन्‍नों में हमेशा याद किए जाएंगे।





बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार के रामपुर वैशाली में हुआ था। जब जीवित थे तब उन्होंने दिए अपने इंटरव्यू में लोगों को बताया कि जब वह 7 साल के थे तब उनके घर में एक महिला बांस का बना सूप और डगरा देने के लिए आती थी। जब वह महिला लौटती तो उनकी दादी जमीन पर गंगाजल छिड़कती। बिंदेश्वर पाठक का बाल मन यह नहीं समझ पाता कि आखिर दादी ही ऐसा क्यों करती थी। एक दिन उन्होंने दादी से पूछ ही लिया कि आखिर वह ऐसा क्यों करती है? दादी ने बताया कि वह ऐसा इसलिए करती हैं ताकि जमीन पवित्र हो जाए। दादी ने कहा कि वह महिला अछूत है। इसलिए वह जिस रास्ते से गुजरती है उसे पवित्र करने के लिए वह गंगा जल छिड़कती हैं।क्योंकि उसके आने और जाने से जमीन अपवित्र हो जाती है। इस पर 7 साल के बिंदेश्वरी पाठक के मन में कई तरह के सवाल खड़े होने लगे। उन्होंने एक दिन उसे महिला को छू लिया। बिंदेश्वर पाठक ने बताया कि जब उसे महिला को उन्होंने छुआ तो उनके शरीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। दरअसल वह देखना चाहते थे कि क्या उस अपवित्र महिला को छूने पर शरीर में कोई परिवर्तन होते हैं या नहीं? 


7 साल के बिंदेश्वर पाठक को लगा यह महिला तो वैसे ही है जैसे हम और आपकिसी कारणवश उन्होंने उसे महिला के पांव छू लिए जिसे इस समाज में अछूत कहा जाता था। डगरा लेकर आने वाली वह महिला माथे पर मानव मल यानी मैला ढोती थी। इस अछूत महिला के पांव छूते वक्त उनकी दादी ने उन्हें देख लिया। अछूत महिला के पांव छूते देखकर घर में कोहराम मच गया। हाय तौबा शुरू हो गया। दादी ने पूरा घर माथे पर उठा लिया। ब्राह्मण परिवार के लड़के ने आखिर कैसे एक अछूत महिला के पांव छू लिए!



दादी ने पोते को पवित्र करने के लिए किया पवित्रता का अनुष्‍ठान

घर को माथे पर उठाए दादी,  ब्राह्मण परिवार में जन्‍में पोते को शुद्ध करने का अनुष्‍ठान शुरू किया। अब बिंदेश्वर पाठक को पवित्र करने के लिए कड़कड़ाती ठंड में गंगाजल से स्नान कराया गया। इससे पहले उन्हें गाय का गोबर खिलाया गया और फिर उसके बाद गाय का ताजा शुद्ध मूत्र भी पिलाया गया। इस घटना ने बिंदेश्वर पाठक के मन पर गहरा असर डाला। कड़कड़ाती ठंड में हुए उनके साथ इस अत्‍याचार ने कभी न भूलने वाली को कहानी मन मस्तिष्क पर उकेर दी। जिसने बिंदेश्वर पाठक को सुलभ इंटरनेशनल के मालिक के रूप में पहचान बनाने पर मजबूर किया। हालांकि 7 साल का मन उस वक्त छुआछूत की बातों को नहीं समझ पाता था। लेकिन इस एक घटना ने उनके जीवन को परिवर्तन के करने में अहम भूमिका निभाई।



नई दिल्लीः मुल्कभर में सार्वजनिक शौचालयों का कॉन्सेप्ट लाने वाले बिंदेश्वरी पाठक  का मंगलवार को निधन हो गया है। अब उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उन्हें ‘भारत के टॉयलेट मैन’ के तौर पर जाना और पहचाना जाता है। पाठक को कई लोग ‘सैनिटेशन सांता क्लास’ भी कहते हैं। उन्होंने मोदी सरकार के 'स्वच्छ भारत मिशन’ से सालों पहले देश में शौचालय की जरूरत को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाया था. पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International की स्थापना की थी जो सार्वजनिक शौचालयों और खुले में शौच को रोकने के लिए जल्द ही एक आंदोलन बन गया।


मैला उठाने पर कर डाली पीएचडी 

पाठक का जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में हुआ था. कॉलेज के बाद नौकरी और फिर उसे छोड़कर वह 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति (मैला उठाने वालों की मुक्ति) प्रकोष्ठ में शामिल होकर इस प्रथा के खिलाफ आंदोलन करने को उतर गए. उन्होंने भारत में मैला उठाने की समस्या को व्यापक स्तर पर रेखांकित किया और उसे पब्लिक डिकोर्स का विषय बनाया. उन्होंने देश भर की यात्राएं की. यहां तक कि उन्होंने अपना पीएचडी शोधपत्र भी इसे विषय पर पूरा किया.


विकासशील देशों में अपनाया जा रहा उनका आइडिया 

पाठक (Bindeshwari Pathak) ने तकनीकी नवाचार को मानवीय सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए 1970 में सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की थी. उनका ये संगठन शिक्षा के माध्यम से मानवाधिकारों, पर्यावरण स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों, कचरा प्रबंधन और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए काम करता है. पाठक के जरिए तीन दशक पहले सुलभ शौचालयों को किण्वन (फर्मेन्टेशन) संयंत्रों से जोड़कर बायोगैस बनाने का डिजाइन अब दुनिया भर के विकासशील देशों में अपनाया जा रहा है. 


1,600 शहरों में 9,000 से ज्यादा सामुदायिक शौचालय 

साल 1974 स्वच्छता के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ था, जब 24 घंटे नहाने, कपड़े धोने और पेशाब करने के लिए सार्वजनिक सुलभ शौचालय की शुरुआत की गई. इस वक्त सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) देश भर के रेलवे स्टेशनों और शहरों में शौचालयों का संचालन और रख-रखाव कर रहा है. भारत के 1,600 शहरों में 9,000 से ज्यादा सामुदायिक सार्वजनिक शौचालय काम कर रहे हैं. इन परिसरों में बिजली और 24 घंटे पानी की आपूर्ति होती है. यहां पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग इंतजाम होते हैं. इसके इस्तेमाल के लिए नाममात्र की रकम ली जाती है।


 490 करोड़ रुपये का सालाना ‘टर्नओवर’ 

कुछ सुलभ शौचालयों में नहाने की सुविधा, अमानत घर, टेलीफोन और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं भी दी जाती हैं. वित्त वर्ष 2020 में सुलभ का 490 करोड़ रुपये का सालाना ‘टर्नओवर’ था. सुलभ इंटरनेशनल (Sulabh International) व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी चला रहा है, जहां पर सफाईकर्मियों, उनके बच्चों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के व्यक्तियों को मुफ्त कंप्यूटर, टाइपिंग और शॉर्टहैंड, विद्युत व्यापार, काष्ठकला, चमड़ा शिल्प, डीजल और पेट्रोल इंजीनियरिंग, सिलाई, बेंत के फर्नीचर बनाने जैसे विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है.



देश और दुनियाभर में उन्हें किया गया है सम्मानित 

पद्म भूषण अर्वाड से सम्मानित पाठक को एनर्जी ग्लोब अवार्ड, दुबई इंटरनेशनल अवार्ड, स्टॉकहोम वाटर प्राइज, पेरिस में फ्रांस के सीनेट से लीजेंड ऑफ प्लैनेट अवार्ड सहित कई अन्य अवार्ड भी मिल चुके हैं. पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1992 में पर्यावरण के अंतरराष्ट्रीय सेंट फ्रांसिस आवार्ड से डॉ. पाठक को सम्मानित किया था. पोप ने पाठक से कहा था, ‘‘आप गरीबों की मदद कर रहे हैं.’’ वर्ष 2014 में, उन्हें सामाजिक विकास के शोबे में बेहतरीन काम करने के लिए सरदार पटेल अंतरराष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा गया था. अप्रैल 2016 में, न्यूयॉर्क शहर के महापौर बिल डी ब्लासियो ने 14 अप्रैल, 2016 को बिंदेश्वर पाठक दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया था. 12 जुलाई, 2017 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जिंदगी पर लिखी गई पाठक की किताब ‘द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड’ का नई दिल्ली में लोकार्पण किया गया था.


कभी अपनों ने ही जताया था विरोध 

बिंदेश्वरी पाठक (Bindeshwari Pathak) के लिए ये काम बिल्कुल आसान नहीं था. इसके विरोध में पहले उनके घर से ही आवाज उठी थी. उन्हें अपने ससुर सहित कई नजदीकी लोगों द्वारा मजाक उड़ाने का सामना करना पड़ा था. पाठक ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके ससुर यह महसूस करते थे कि अपनी बेटी की शादी उनसे करके बेटी की जिंदगी बर्बाद कर दी है. वह ऐसा इसलिए सोचते थे, क्योंकि वह किसी को नहीं बता सकते कि उनका दामाद क्या काम करता है. मैला ढोने वालों के बच्चों के लिए दिल्ली में एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल स्थापित करने से लेकर वृन्दावन में परित्यक्त विधवाओं को माली मदद देने या दिल्ली में शौचालयों का एक संग्रहालय स्थापित करने तक, पाठक और उनके संस्था सुलभ ने हमेशा हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए काम किया है।