Breaking News

आठवे दिन की रामकथा में बोले पूज्य प्रेम भूषण जी महराज : भगवान प्रेम के भूखे,पकवान के नही






मधुसूदन सिंह
बलिया।।भगवान प्रेम के भूखे , छप्पन भोग के नही 

 बाबा बालखंडी नाथ के सानिध्य में चल रही श्रीराम कथा के आठवे दिन प्रसिद्ध कथा वाचक पूज्य प्रेम भूषण जी महराज नर श्रीराम कथा के माध्यम से भक्ति और प्रेम को विस्तार से बतलाया। कथा के प्रारम्भ में परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह की माता तेतरी देवी व छोटे भाई धर्मेंद्र सिंह तथा उनकी पत्नी सारिका सिंह ने व्यास पीठ का पूजन किया। श्रीरामकथा में सुप्रसिद्ध कथावाचक प्रेमभूषण महाराज ने भगवान द्वारा ऋषियों से अपने आगे के कार्यो के लिए दिशा निर्देश लेने तथा भरत चरित्र का खूबसूरती के साथ वर्णन किया। सबरी प्रेम के चित्रण से बताया कि भगवत प्रेम में कोई भी जाति बंधन और स्त्री पुरुष का भेद नहीं होता है।


अगर सेवक हो तो हनुमान जी जैसे हो, हनुमत चरित्र से भक्ति का संचार किया। महाराज ने प्रभु श्रीराम व केवट के संवाद का वर्णन कर लोगों को भक्ति रस में डूबा दिया। कथा का श्रवण कराकर उपस्थित भक्तों को भावविभोर कर सियाराममय कर दिया। कथा प्रारम्भ होने से पूर्व भगवान भोलेनाथ, भगवान श्रीराम, स्वामी प्रेम भूषण जी महाराज का पूजन किया। इस दौरान भाजपा के जिलाध्यक्ष जयप्रकाश साहू,सांसद सलेमपुर रविन्द्र कुशवाहा, बांसडीह विधायक केतकी सिंह,जितेंद्र राव, पिंटू सिंह, जयराम सिंह, पूर्व प्रमुख गुड्डू राय, संजय मिश्र, विजय प्रताप सिंह, सुनील तिवारी आदि मौजूद रहे।



भगवत प्रेम की चर्चा करते हुए श्रद्धेय प्रेमभूषण जी महाराज कहते है -- कबहुँक करि करुणा नर देहि, देत ईस बिनु हेतु सनेही ।।
भगवान ने मनुष्य को बनाकर कोई स्वार्थ नही चाहा है । लेकिन हम लोग भगवान के एक भी काम नही आ रहे है । मात्र हम दिखावे के लिये भगवान को छप्पन भोग चढ़ाते है , पूरे मोहल्ले में चर्चा कर देते है कि आज मैने भगवान को छप्पन भोग चढ़ाया है । हम यह इस लिये नही करते है कि हमने छप्पन भोग चढ़ाया है बल्कि इस लिये करते है दुनिया मेरे ऐश्वर्य को देखे , मुझे बड़ा भक्त समझे । अरे भाई किसको छप्पन भोग चढ़ा रहे हो ? जिसने सबकुछ दिया उसी के सामने अहंकार ? भगवान छप्पन भोग के नही प्रेम के भूखे है । अगर भगवान को कोई अपने घर बुला सकता है , रुका सकता है तो वह भक्त ही है । ऐसा तब होगा जब आप केवटराज जैसी भक्ति अपने हृदय में प्रभु के लिये लानी पड़ेगी । केवट ने जब मात्र प्रभु के चरण को नेह के साथ पखारा तो उसकी चारो व्याधि/दरिद्रता दूर हो गयी । मिटे दोष - मिटे दोष , दर्शन करने से आंखों का दोष दूर हुआ ,दुख जो मन मे था समाप्त हुआ , भक्त दुख में भी सुख ढूंढ लेते है केवट ने मन की दरिद्रता को भगवान के। प्रेम से दूर किया ।




  कथा आगे बढ़ती है । प्रभु श्रीराम माता जानकी के साथ गंगा जी को पार करके प्रयागराज पहुंच कर साढ़े तीन करोड़ तीर्थो के राजा प्रयागराज की पूजा अर्चना करते है । भगवान इसके बाद भारद्वाज ऋषि के आश्रम पहुंचते है । सभी ऋषिमुनियों को यथोचित दंडवत प्रणाम करते है । इसके बाद माता सीता और लक्ष्मण जी को प्रयागराज की शोभा दिखाते और महात्म्य समझाते है । रात्रि विश्राम भारद्वाज मुनि के आश्रम में करने के बाद प्रातः नित्यकर्म करने के बाद आगे जाने का मार्ग पूंछते है । भारद्वाज जी कहते है प्रभु आपको तो सभी मार्ग सुगम है मैं क्या कहूँ ।
देखत बन सर सैल सुहाए ,बाल्मीकि आश्रम प्रभु आये
राम दीख मुनि बासु सुहावन ,सुन्दर गिररि काननू जल पवन
सरनि सरोज बिटप बन फूले, गुंजत मंजू मधुप रस भूले ।
सूचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजीव नैन ,
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन ।।
भगवान राम ने पत्नी सीता और भाई लखन के साथ मुनिश्रेष्ठ को दंडवत किया और रात्रि विश्राम मुनिश्रेष्ठ से सद्ग्रन्थों पर चर्चा के उपरांत मुनि के ही आश्रम में किया । सुबह बिदा लेते हुए प्रभु बाल्मीकि जी से कहते है कि मुझे बताइये कि मुझे कहा रहना चाहिये तो बाल्मीकि जी कहते है --
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाऊ ,
जहँ न होहुँ तहँ देहुँ कहि तुम्हहि देखावउँ ठाउँ ।।
 यहां एक प्रसंग उठता है जो जानना जरूरी है । वह है कि प्रभु ने मुनि भारद्वाज से चलने का मार्ग पूंछा , किधर जाऊ ? बाल्मीकि जी से निवास पूंछा , किधर रहूं ? और अगस्त ऋषि से रावण को मारने का मंत्र पूंछा कैसे मारूं ? प्रभु यहां सीख दे रहे है कि जीने का , रहने का , जाने का ढंग संत महात्माओं से पूंछना चाहिये । क्योंकि संसारी अपने मार्ग का विचार करता है लेकिन महापुरुष परमार्थ का ।
बाल्मीकि जी ने कहा प्रभु सबकुछ जानते हुए मुझसे पूंछते है कि मैं कहाँ रहूं ? ऐसा कौन सा स्थान नही है जहां आप न हो ? फिर भी मैं आपको वो 14 स्थान आपको बताता हूँ जहां आपको अवश्य रहना चाहिये ---
निन्दरहिं सरित सिंधु सर भारी, रूप बिंदु ज होहिं सुखारी ।।
सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ ,
तिनके मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ ।
बालमीकि मन आनँदु भारी , मंगल मूरति नयन निहारी ।।
प्रभु आप वहां रहे जहां आपके नाम का संकीर्तन होता हो , गुण संकीर्तन में लगे हो , हे राम जी ! उनके हृदय में आपका वास हो , सुगंध आपको अर्पित करके ले , भोजन आपको अर्पित करके ले , जिसका श्रेष्ठ को देखकर सिर झुक जाये, हाथ से आपकी सेवा करे , चरण से आपके तीर्थ की यात्रा करे, रामजी वहां आपका निवास हो । जो मनसा वाचा कर्मणा आपका हो , आपके मंत्रराज का जप करे , तीर्थ करे , ब्राह्मण देवताओं को भोजन कराकर बहुत भांति दान दे , सारे सत्कर्म करने के बाद केवल एक बात मांगे हे प्रभु ! आपके चरणों मे प्रेम बढ़े , उनके मन रूपी मंदिर में जानकी जी के साथ आप दोनों भाई निवास कीजिये ।
 प्रेम भूषण जी महाराज कहते है --
तुमने आंगन नही बुहारा कैसे आएंगे भगवान
चंचल मन को नही सम्हारा कैसे आएंगे भगवान ...।।
बाल्मीकि जी के कहने पर भगवान चित्रकूट पर्वत पहुंचते है । यहां भगवान विश्वकर्मा ने प्रभु के लिये सुंदर पर्णकुटी का निर्माण किया ।
इधर अयोध्या में बिना राम सीता लखन के सुमन्त जी के लौटने पर राजा दशरथ को बड़ा दुख हुआ और राम राम कहते हुए अपने प्राणों को छोड़ दिया ।
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम ,
तनु परिहरि रघुबर बिरह राउ गयउ सुरधाम ।।
बाबा भोले नाथ इसको देखकर माता पार्वती जी से कहते है ---
जिअन मरन फलु दशरथ पावा ,अंड अनेक अमल जसु छावा
जिअत राम बिधु बदन निहारा , राम बिरह करि मरनु संवारा ।।
ध्यान दीजिये - यहां भोले नाथ यह समझा रहे है कि जीने के दो ही कारण होने चाहिये - जीने का फल राम दर्शन और जब शरीर छूटने का समय आये तो राम स्मरण , जीवन यात्रा पूर्ण हो जाएगी ।
चक्रवर्ती महाराज का तो यही व्रत और प्रण था -
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना , मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ।।
   भरत और शत्रुघ्न को ननिहाल से तुरंत गुरु वशिष्ठ जी बुलवाते है । पिता मरन और प्रभु राम के वन गमन से भरत जी बहुत ही दुखी और अपनी माता केकई पर कुपित होते है । गुरु वशिष्ठ जी कहते है तब शांत होते है और पिता का अंतिम संस्कार करते है ।
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ।।
 इसके बाद गुरु वशिष्ठ और माता कौशल्या समेत सभी लोग जब महाराज के वचन के पालन के लिये भरत जी से राजा बनने को कहते है तो भरत जी बिचलित हो जाते है और करुण स्वर में कहते है यह आप लोग क्या कह रहे है - जिस वचन के पालन करने के कारण हमारे प्रभु श्रीराम माता जानकी और भाई लक्ष्मण वन चले गये , हमारे देवतुल्य पिता ने प्रभु राम के वियोग में अपने प्राण त्याग दिये , उस वचन का मैं पालन करूं ? अरे ऐसी स्थिति में अगर भरत सिंहासन पर बैठेगा या आप लोग जबरियां बैठाएंगे तो  धरती रसातल को चली जायेगी । मैने निश्चय किया है कि सुबह होते ही मैं अपने प्रभु को मनाकर वापस लाने के लिये जंगल जाऊंगा ।






 चलत प्रात लखि निरनउ नीके , भरतु प्रानप्रिय भे सबही के
मुनिहिं बंदि भरतहि सिरु नाई , चले सकल घर बिदा कराई ।।
जरयु सो संपति सदन सुख सुहृद मातु पितु भाइ
सनमुख जो राम पद करै न सहस सहाइ ।।
प्रेम भूषण जी महाराज कहते है कि ऐसी परिस्थिति पर हमारे डॉक्टर साहब कहते है ---
राम मोरा गइलें बनवा , हो नाही भावे मनवा ....
राम जी के बनवा पठवलु रानी कैकई
कैसे के रहिहैं परनवां हो नाहि भावे भवनवा ... राम मोरा....
बिलखि भरत जी कहेले समुझाइये के , कहाँ रउरा चलि अइले हमें बिसराइके
बरसन लागा नयनवा हो नाहि भावे भवनवा , राम मोरा .....
अपनी माता केकई की सोच पर भरत जी कहते है -- तौ परिनाम न मोरि भलाई , पाप सिरोमनि साईं दोहाई ।।
भरत जी कहते है अयोध्या की संपत्ति मेरी नही मेरे प्रभु श्रीराम की है , यदि इसको संभाले बिना चलता हूँ तो पाप होगा , बडा पाप हो जाएगा ,अपनी संपत्ति चाहे चूक जाये पर दुसरो की अमानत नही चुकनी चाहिये । (यह हमारा देश धाय मां पन्ना का है जहां राजकुमार उदय सिंह की रक्षा के लिये अपने बेटे को बलि चढ़ा दिया )।
अपने पवित्र सेवको को बुलाकर राजकाज का भार सौपकर गुरुदेव और गुरुमाता अरुंधती , तीनो माताओं और शत्रुघ्न के साथ राम जी को मना जंगल को निकल पड़े । इनके साथ ही नगर के नर नारी भी पीछे पीछे हो लिये । यहाँ सुंदर गीत है --
भरत चले चित्रकूट हो रामा , राम को मनाने
राम को मनाने सिया लखन को मनाने
भरत चले चित्रकूट हो रामा, राम को मनाने
सियाराम को मनाने , सियाराम को मनाने ,..।।
जल्दी प्रभु तक पहुंचने की लालसा में रात में भी तमसा के तट पर कोई सोया नही , कारण कि दूध का जला छांछ भी फूंक फूंक कर पीता है , सब यह सोचकर नही सोये कि सोने में कही देर न हो जाये । बड़ी भारी सेना और लोगो के साथ भरत जी को देखकर निषाद राज सोच में पड़ गये कि कही भरत जी हमारे प्रभु से युद्ध करने तो नही जा रहे है ? इसकी परीक्षा लेनी चाहिये । निषाद राज वहां पहुंचकर दंडवत प्रणाम करते है । गुरु वशिष्ठ जी बताते है कि हे भरत यह प्रभुराम के मित्र निषादराज है इतना सुनते ही भरत जी ...
राम सखा सुनि संदनु त्यागा , चले उतरि उमगत अनुरागा ।
 गाऊँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई ,कीन्ह जोहारु माथ महि लाई ।।
धन्य धन्य सुनि मंगल मुला, सुर सिराहि तेहि बरिसहिं फूला ।।
इसी लिए गोस्वामी जी कहते है --
जाति पांति पूंछे नहिं कोई , हरिका भजै सो हरि का कोई ।।
आज जब भरत जी निषाद राज को हृदय से लगाते है तो भोलेबाबा माता से कहते है - राम राम कहि जे जमुहाही , तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा,कुल समेत जगु पावन कीन्हा
स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात
रामु कहत पावन परम् होत भुवन विख्यात ।।
नहि अचिरिजु जुग जुग चली आई , केहि न दीन्ह रघुबीर बड़ाई ।।
यह जुग जुग से प्रचलित कथा है कि भगवान ने किसको प्रतिष्ठा नही दी । महर्षि नारद जी की मैया ऋषिमुनियों की सेवा करती थी , उनका जूठन प्राप्त करके नारद जी परम भागवत देवर्षि हो गये । इसी लिये कहा गया है कि जिसके घर भागवत भजन होगा उसके घर से सारे विघ्न अपने आप दूर हो जाएंगे । हर दशा में भगवान से यही कहना चाहिये ---
मेरा आपकी कृपा से , सब काम हो रहा है ,
करते हो मेरे राघव मेरा नाम हो रहा है ...
पतवार के बिना ही मेरी नाव चल रही है
हैरान है जमाना,मंजिल भी मिल रही है
करता नही है कुछ भी , सब काम हो रहा है ...मेरा आपकी ...
तुम साथ हो तो मेरे, किस चीज की कमी है
तेरे सिवा किसी की , परवाह भी नही है
तेरी दया से दास अब, मालामाल हो रहा है , मेरा आपकी ....

 प्रातः काल निषाद राज ने घाट घाट की नावों को मंगा कर सभी लोगो को एक ही बार मे पार उतार दिया । पार उतरने के बाद भरत जी ने रथ को छोड़कर पैदल चलने लगे , पूंछने पर कहा - श्रृंगबेरपुर तक मेरे प्रभु रथ पर आये थे वो मर्यादा है हम उसका आश्रय किये , लेकिन यहां से हमारे प्रभु राम जी पैदल गये थे , इस लिये मैं भी प्रयागराज तक पैदल ही जाऊंगा । कहते है भक्त को सिर के बल चलकर अपने प्रभु तक पहुंचना चाहिये । भक्त के मन मे यही भाव हमेशा रहता है --
इतनी शक्ति हमे देना दाता मन का विश्वास कमजोर हो न
हमे चले नेक रस्ते पे हमसे भूल कर भी कोई भूल हो ना ....।।
भरत जी समाज के साथ तीसरे पहर में प्रयागराज में प्रवेश किया । तीर्थराज प्रयाग को सब समाज ने प्रणाम किया । सब लोग उचित स्थान देखकर उतरे और देखा कि पैदल चलने के कारण भरत जी के पांवों में छाले पड़ गये है ।

झलका झलकत पायन्ह कैसे , पंकज कोस ओस कन जैसे ।।
त्रिवेणी संगम में स्नान करके भरत जी तीर्थराज प्रयाग से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहते है -- यद्यपि क्षत्रिय होने के कारण हमारे कुल में मांगने का नही देने का रिवाज है , लेकिन मैं आज अपने क्षत्रिय धर्म का परित्याग करके आपसे मांगता हूं ---
मांगऊँ भीख त्यागि निज धरमू , आरत काह न करइ कुकरमू ।
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ।।
सीताराम चरन रति मोरें,अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरे ।।
जब यह बिनती तीर्थराज प्रयाग ने सुनी तो त्रिवेणी मैया के माध्यम से कहा - तात भरत तुम सब विधि साधु ,राम चरन अनुराग अगाधू ।।
बादि गलानि करहु मन माहीं, तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं ।।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू , धरें देह जनु राम सनेहू
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा , रघुबर किंकर कुमुद चकोरा ।।

 भरत चले चित्रकूट हो रामा राम को मनाने
राम को मनाने सिया लखन को मनाने ....
भरत जी को इस प्रकार राम प्रेम में निमग्न देख देवताओं को चिन्ता होने लगी कि इस तरह तो भरत जी प्रभु राम को वापस ले जा सकते है । सभी लोग ब्रह्मा जी से अयोध्या जैसी घटना घटित करने की बिनती करते है ,तब ब्रह्मा जी कहते है कि मेरे हाथ मे कुछ नही है ,अयोध्या में भी जो कुछ हुआ वह प्रभु की मर्जी से हुआ ,यहां भी जो कुछ होगा प्रभु की मर्जी से ही होगा आप लोग भरत जी की भक्ति देखकर अपने मनोरथ सिद्ध कीजिये । भरत जी को रोकने पर प्रभु राम क्रोधित हो जाएंगे ।
जो अपराधु भगत कर करई ,राम रोष पावक सो जरई ।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा , यह महिमा जानहिं दुरबासा ।।
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा , रामहि सेवक परम् पिआरा
मानत सुख सेवक सेवकाई ,सेवक बैर बैरु अधिकाई ।।
रावण जबहि विभीषण त्यागा , भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ।।

चलत पयादे खात फल पिता दीन्ह तजि राजू,
जात मनावन रघुबरहिं भरत सरिस को आजु ।।

उहां राम रजनी अवशेषा,जागे सीय सपन अस देखा
सहित समाज भरत जनु आए, नाथ बियोग ताप तन लाये ।।
सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर,
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल ।।
एक आइ अस कहा बहोरी, सेन संग चतुरंग न थोरी
सो सुनि रामहि भा अति सोचू ,इत पितु बच इत बंधु सकोचू ।।
सावधान तब भा यह जाने ,भरतु कहे महुँ साध सयाने ।।
जगु भय मगन गगन भइ बानी, लखन बाहुबल बिपुल बखानी ,
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा , को कहि सकइ को जाननिहारा ।।
सहसा करि पाछें पछिताहीं, कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ।।
राम जी लखन जी कहते है -- भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ
कबहूँ कि कांजी सिकरनि , छिरसिन्धु बिनसाइ ।।
लखन तुम्हारा सपथ पितु आना, सुचि सुबंधु नहिं भरत सामना,
भरत हंस राबिहँस तड़ागा, जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा ।।
जौ न होत जग जनम भरत को, सकल धरम धुर घरनि धरत को ,
लखन राम सिय सुनि सुर बानी , अति सुख लहेउ न जाइ बखानी ।।
निषाद राज द्वारा दूर से ही भगवान की कुटिया दिखाते ही भरत जी वही से जमीन पर लेट कर हाय प्रभु हाय प्रभु करते हुए जाने लगे ।
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई , भूतल परे लकुट की नाई ।।
पाहिनाथ पाहिनाथ शब्द सुनते ही भगवान एक झटके से उठते है । बाबा कहते है भगवान के एक झटके से उठने से सब अस्त व्यस्त हो गया ।
उठे रामु सुनि प्रेम अधीरा ,कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा ।।
 प्रभु ने भरत जी को देखा , और तुरंत उठाकर हृदय से लगाया ।
बरबस लिये उठाइ उर लाए कृपानिधान
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ।।
सील सिंधु सुनि गुर आगवनू, सिय समीप राखे रिपुदवनु
चले सबेग रामु तेहि काला , धीर धरम धुर दीनदयाला ।।
भगवान राम और लक्ष्मण दोनो भाई सीता जी के साथ सभी पूज्य लोगो , गुरुमाता और तीनों माताओं को प्रणाम कर उचित उचित स्थानों पर विश्राम कराते है । गुरु वशिष्ठ और भरत जी वापस अयोध्या चलने की बात कहते है । भगवान राम उनलोगों को समझाकर अयोध्या भेजते है   भरत जी भगवान के खड़ाऊं को सिर पर रखते हुए अयोध्या के सिंहासन पर रखकर राजकाज देखने लगे ।

भरत जी को बिदा करके भगवान राम मैया सीता और लखन लाल के साथ अनुसुइया मैया के कुटी पहुंचते है । माता अनसुइया ने माता सीता को नारी धर्म के सम्बंध उपदेश देकर बहुत सीख दी । भगवान ने अगस्त मुनि को वचन दिया कि अब ऋषि मुनि निश्चिंत होकर पूजा करे , मैं इस पृथ्वी से राक्षसों के नाश करने का वचन देता हूँ । फिर अगस्त ऋषि से इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये किधर जाऊँ पूंछते है तब ऋषि दक्षिण दिशा में जाने की बात कहते है । अगस्त मुनि ने रावण की मृत्यु का उपाय बताते हुए भगवान को 31 वा वह बाण दिया जो रावण के नाभि के अमृत को सोखेगा ।
इसी बीच सुपर्णखा के नाक कान को लक्ष्मण जी काट देते है । वह लंका जाकर अपने भाई लंकेश से इस घटना को बताती है । लंकेश इसका बदला लेने की बात कहता है । दसानन ने धोखे से सीता जी का हरण कर अपनी अशोक बाटिका में रखता है । राम लक्ष्मण सीता जी को पशु पक्षी सभी से पूंछते हुए ढूंढ रहे है । तभी जटायु घायल अवस्था मे मिलते है जो सीता जी को रावण से बचाते वक्त घायल हुए थे । जटायु ने यह बात बताकर कि लंका के राजा रावण ने सीता का हरण किया है प्रभु की गोद मे प्राण त्याग दिया । भगवान ने गिद्ध राज का अंतिम संस्कार कर आगे बढ़े ।



कबन्ध का उद्धार करने के बाद भगवान शबरी माता के घर पहुंचे है ।
शबरी देखी राम गृह आये, मुनि के बचन समुझि जिय भाए,
सरसिज लोचन बाहु बिसाला ,जटा मुकुट सिर उर बन माला ।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई, सबरी परी चरन लपटाई ।।
शबरी को गुरु जी की बात स्मरण आई कि राम जी आएंगे तो उनका पांव धोना । भगवान की पांच प्रकार की सहज सेवा है -पंचोपचार ,अष्टोपचार,दशोपचार,द्वादशोपचार,षोड़शोपचार । सबसे सहज है पंचोपचार --स्नान कराना, चन्दन वस्त्र भूषण से सजाना, धूप दीप नैवेद्य आदि चढ़ाना । इसमें मंत्र न आवे तो भी कोई बात नही राम राम कह दो हो जाएगी पूजा ।
सादर जल लै चरन पखारे ,पुनि सुंदर आसन बैठारे ।।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहु आनि ,
प्रेम सहित प्रभु खाये बारंबार बखानि ।।
शबरी कहती है --
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी, अधम जाति मैं जड़मति भारी,
अधम ते अधम अधम अति नारी , तिन्ह महं मैं मति मंद अघारी ।।
इस पर भगवान राम कहते है -
कह रघुपति सुन भामिनि बाता, मानउँ एक भगति कर नाता ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा , बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ।।
नवधा भगति कहउ तोहि पाहीं, सावधान सुनु धरु मन माहीं ।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा, दूसरी रति मम कथा प्रसंगा
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा ,पंचम भजन जो बेद प्रकासा
छठ दम सील बिरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धरमा
सातवां सम मोहि मय जग देखा , मोतें संत अधिक कर लेखा
आठवँ जथा लाभ संतोषा,सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा
नवम सरल सब सन छलहीना , मम भरोस हियँ हरष न दीना
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई ,नारि पुरुष सचराचर कोई
सोई अतिसय प्रिय भामिनि  मोरे , सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें
जोगि बृंद दुरलभ गति जोइ, तो  कहु आजु सुलभ भइ सोई ।।
यह सब कह कर भगवान जब बोले कि माते अब जाऊं तो शबरी बोली नही आप कैसे जाएंगे पहले मुझे बिदा कर दीजिये । प्राण को मां ने छह चक्रों में लाकर ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित कर दिया । भगवान के श्री चरणों को हृदय में पधराया, नेत्रों को भगवान के श्रीमुख में लगाया , देखते ही देखते योगाग्नि में शरीर को प्रवेश कराकर मां परमात्मा में ही प्रवेश कर गयी जहां से कोई वापस आता ही नही है ।

भगवान राम , मां शबरी द्वारा बताये गये ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े । अंग्रेजी की एक कहावत है अच्छी शुरुआत आधा काम पूरा । कार्य को प्रारम्भ करने के लिये जितनी भी हमारी निष्ठा है , जितना ही विश्वास हमारा दृढ़ है उतनी उसकी पूर्णाहुति दिव्यतम होती है । आगे बढ़ने पर सुग्रीव जी द्वारा हनुमान जी को दोनो भाइयो के पास भेजा जाता है । हनुमान जी जाकर प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर कहते --
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा, छत्री रूप फिरहु बन बीरा
कठिन भूमि कोमल पद गामी,कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी
मृदुल मनोहर सुंदर गाता , सहत दुसह बन आतप बाता
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ , नर नारायण की तुम्ह दोऊ
जग कारन तारन भव भंजन घरनी भार
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार
 भगवान जी लक्ष्मण को देखकर मुस्कुराए और हनुमान जी ने जो पूंछा था उसका ही उत्तर दिया क्योंकि हनुमान जी अपने वास्तविक रूप को छिपाकर भगवान के सामने खड़े थे जबकि भगवान के सामने कुछ छुप ही नही सकता है । भगवान राम ने कहा मैं और ये मेरा छोटा भाई महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण है । हमारे साथ एक देवी भी थी जिसको निसचरो ने हरण कर लिया है , उन्ही को ढूंढ रहे है । लेकिन बिप्र वर आपने अपना परिचय नही दिया ? इतना सुनना था कि -
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना , सो सुख उमा जाइ नहिं बरना ।।
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना ,तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ।।
हनुमान जी भगवान और सुग्रीव की दोस्ती करा देते है । भगवान दोस्त के खातिर आतताई बालि का बध करके सुग्रीव को राजा बना देते है । भगवान अंगद को राजा बनाकर प्रबरसन पर्वत पर चातुर्मास करते है और इसकी समाप्ति पर सुग्रीव को माता सीता की खोज करने का आदेश देते है । चातुर्मास बीत जाने के बाद भी जब सुग्रीव माता सीता का पता नही लगा पाते है तो नाराज होकर भगवान लक्ष्मण जी को भेजकर सुग्रीव को बुलाते है । सुग्रीव आते ही क्षमा याचना के बाद अपने सभी बंदरो को एक माह के अंदर सीता जी का पता लगाकर आने का आदेश देते हुए चेताया भी कि बिना पता लगाएं जो आएगा वह मेरे द्वारा मारा जाएगा । सभी योद्धा अलग अलग टोलियों में सभी दिशाओं में निकले दक्षिण दिशा की तरफ अंगद ,जामवंत,नल नील , गव-गवाक्ष ,द्विविद,मयंद,हनुमान जी , सठ, निसठ ये दस यूथप लोग गये । जब हनुमान जी जाने लगे तो प्रभु ने रोक कर उनके सिर पर हाथ रखकर आशीष दी और अपनी मुद्रिका देते हुए कहा कि इसको देकर सीता जी से मेरा संदेश और पौरुष कहकर कहना कि धीरज रखिये भगवान शीघ्र ही सारे राक्षसों का संहार करके आपको ले जाएंगे ।