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बलिया के लाल ठाकुर गुरुदत्त सिंह की चुप्पी ने स्थापित करायी भगवान राम की मूर्तियां, तत्कालीन जिलाधिकारी की भी थी मौन स्वीकृति






मधुसूदन सिंह 
बलिया 30 दिसंबर 2023 ।। 22 जनवरी 2024 का दिन हिन्दू जनमानस के लिये एक धार्मिक उत्सव का होने वाला है, क्योंकि इस दिन देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी जी भगवान श्रीराम माता सीता और इनके परिवार की मूर्तियों की स्थापना करेंगे। वही 5 अगस्त 2020 का दिन भी हिन्दू जनमानस के लिये सबसे बड़े धार्मिक उत्सव से कम नहीं है क्योंकि इस दिन अयोध्या में सैकड़ो वर्ष के संघर्षों के बाद अयोध्या के राजा भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण का शिलान्यास प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने किया था ।
 लेकिन 5 अगस्त 2020 का जो ऐतिहासिक दिन आया है और 22 जनवरी 2024 का जो दिन आने वाला है वह आजादी की लड़ाई जैसा संघर्ष करने व हजारों रामभक्तों के बलिदान के बाद आया है । इस आंदोलन में सैकड़ों वर्षो बाद जान 1949 में तब आयी जब विवादित स्थल के अंदर भगवान का प्राकट्य हुआ ।
इस समय ठाकुर गुरुदत्त सिंह यहां नगर मजिस्ट्रेट/प्रभारी जिलाधिकारी थे और इन्ही के रहते भगवान की मूर्तियां स्थापित हुई । ठाकुर गुरुदत्त सिंह में बागी बलिया के निवासी और इनमे बलिया की माटी का तेज कूट कूट कर भरा था। इनके भाई डॉ गुरु हरख सिंह बलिया के प्रसिद्ध चिकित्सक थे । डॉ गुरु हरख सिंह के पुत्र डॉ गुरु विलास सिंह भी प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ थे।इस राम लला के नये मंदिर में नीव का पत्थर बलिया की बागी धरा के बेटे ने ही रखी थी, जो अब विशाल मंदिर के रूप में दुनिया के सामने है।
बाबरी मस्जिद करीब सौ साल पहले (फोटो: ब्रिटिश लाइब्रेरी बोर्ड)

ज़ब एकाएक राम लला का हुआ प्रकाट्य 

उस समय गुरुदत्त सिंह फैजाबाद के सिटी मैजिस्ट्रेट थे और उनके बारे में यह मशहूर था कि उन्होंने अपने ब्रिटिश आकाओं को खुश करने की खातिर अपने तौर-तरीके कभी नहीं छोड़े थे. उनके पोते शक्ति सिंह, जो कि फैजाबाद में बीजेपी के नेता हैं, के अनुसार गुरुदत्त “पक्के हिंदूवादी” थे।गुरुदत्त सिंह शाकाहारी थे, कोई नशा नहीं करते थे और अपने कॉलेज के दिनों से ही रामभक्त थे।




गुरुदत्त सिंह भारत की आजादी के पहले से ही एक सरकारी अफसर थेे और ये उनका ही प्लान था कि बाबरी मस्जिद को मंदिर में बदल दिया जाए. (फोटो: द क्विंट)
गुरुदत्त सिंह के बेटे गुरू बसंत सिंह, 88 (सन 2022 में स्वर्गवास ) ने झिझकते हुए  द क्विंट को उन खुफिया बैठकों के बारे में बताया जो उनके घर ‘राम भवन’ में हुआ करती थी। उस समय बसंत सिंह सिर्फ 15 साल के थे और मेहमानों को नाश्ता-पानी देने के लिए उन बैठकों में आते-जाते रहते थे। इन बैठकों में उनके पिता के अलावा जिला मजिस्ट्रेट केके नायर, पुलिस अधीक्षक कृपाल सिंह और जिला जज ठाकुर बीर सिंह शामिल थे।
शहर के चार बड़े अधिकारी बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति स्थापित करने की जिद पर थे. कौन करता इनका विरोध और उससे क्या हो जाता? उनकी गतिविधियों से लगता था कि वो सतर्क अधिकारी थे, लेकिन असल में वो भक्तों को छूट देते थे ताकि वो मस्जिद में घुस सकें और पूजा-पाठ कर सकें

लेकिन जो कुछ भी इन अधिकारियों ने किया उसे कबूल लेने की बजाय उन्होंने ‘चमत्कार’ की कहानी क्यों गढ़ी? इस सवाल का जवाब गुरू बसंत सिंह ने देते हुए बताया कि इस घटना से आम लोगों को जोड़ने के लिए ऐसा किया गया। मस्जिद में स्वयं रामलला के प्रकट होने के दावे से बेहतर युक्ति क्या होती ।
(ग्राफिक्स: राहुल गुप्ता)
गुरुदत्त सिंह के सीनियर और फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट केके नायर एक मृदुभाषी मलयाली थे। कहा जाता है कि उनका झुकाव हिन्दू महासभा की तरफ था - जो कि भारत की सबसे पुरानी हिंदूवादी राष्ट्रवादी पार्टी थी। जिस दिन बाबरी मस्जिद में घुसपैठ हुई, उस दिन केके नायर छुट्टी पर थे, लेकिन वो फैजाबाद छोड़कर नहीं गए।
इस योजना में केके नायर की मिलीभगत की बात इससे भी साबित होती है कि वो घटनास्थल पर सुबह चार बजे ही पहुंच गए थे, लेकिन उन्होंने लखनऊ में अपने वरिष्ठों को इस घटना की सूचना सुबह 10:30 बजे तक नहीं दी।
बाबरी मस्जिद में हिंदू धर्म के कुछ लोग रात के अंधेरे में घुस आए और वहां भगवान की स्थापना की. जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक और पुलिस के जवान मौके पर पहुंच चुके हैं. स्थिति नियंत्रण में है. पुलिस पिकेट के 15 जवान, जो रात को ड्यूटी पर थे, ने भीड़ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.
संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोबिंद बल्लभ पंत को केके नायर का रेडियो संदेश
सुबह 4 बजे बाबरी मस्जिद पहुंच चुके नायर ने अगले पांच घंटे तक ना तो मस्जिद खाली कराने की कोशिश की और ना ही मूर्ति को हटाया। नायर बाद में जनसंघ में शामिल हो गए और चुनाव जीतकर सांसद भी बने।

 क्या कर रहे थे प्रधानमंत्री नेहरू ?

26 दिसंबर,1949 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोविंद वल्लभ पंत को टेलिग्राम भेजकर अपनी नाराजगी जाहिर की और लिखा कि “वहां एक बुरा उदाहरण स्थापित किया जा रहा है जिसके भयानक परिणाम होंगे.”
इसके बाद 5 फरवरी, 1950 को उन्होंने पंत को एक और चिट्ठी लिखी और उनसे पूछा कि क्या उन्हें अयोध्या आना चाहिए।
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की यह यात्रा कभी नहीं हो पाई।
बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियों की स्थापना के 66 साल बाद आज भी इस बात पर बहस जारी है कि 22 दिसंबर, 1949 को हुई यह घटना “क्या एक सुनियोजित साजिश थी जिसमें राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर के नेता शामिल थे ।
रामलला की स्थापना के 43 साल बाद बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया. (फोटो: Reuters)
लेकिन जमीनी स्तर पर, इसे स्थानीय प्रशासन और मीडिया द्वारा एक स्थानीय सांप्रदायिक घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया। 22 दिसंबर, 1949 को घटी इस घटना ने अंग्रेजों द्वारा बनाई गई उस व्यवस्था को भी खत्म कर दिया जिसके अंतर्गत हिंदुओं और मुस्लिमों के लिए मस्जिद के अंदर पूजा और नमाज पढ़ने की व्यवस्था की गई थी। वह 22-23 दिसंबर 1949 की रात थी, जब विवादित इमारत में रामलला का प्राकट्य हुआ । इस प्रसंग का अंकन 22/23 दिसंबर की रात वहां तैनात रहे मुस्लिम पुलिस आरक्षी बरकत के बयान में मिलता । बरकत इसमें कहते हैं 'मस्जिद के भीतर से नीली रोशनी आ रही थी, जिसे देखकर मैं बेहोश हो गया'। इसके बाद दावेदारी का संघर्ष नए सिरे से मुखर होता है।
 देश में कहीं अशांति न फैले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ को निर्देशित किया कि विवादित परिसर से मूर्ति हटवायी जाय। मुख्यमंत्री मंत्री ने फैजाबाद के तत्कालीन डीएम केके नैय्यर व सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर गुरु दत्त सिंह से मंत्रणा की और आगे की रणनीति तैयार की। इसी बीच खुद मुख्यमंत्री अयोध्या के लिए चल पड़े। किन्तु सिटी मजिस्ट्रेट गुरु दत्त सिंह ने उनको शांति भंग होने का हवाला देते हुए यह कह कर रोक दिया कि वहां जाना खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन उचित समय मिलते ही मूर्ति हटाने की कार्रवाई करेगा। यहीं से यह मामला न्यायिक सीमा में आ गया। उधर सिटी मजिस्ट्रेट ने दो महत्वपूर्ण निर्णय देकर अपना इस्तीफा दे दिया। उधर मुस्लिम समाज की ओर से मुकदमा न्यायालय में दाखिल होने पर जिला प्रशासन ने 29 दिसम्बर 1949 को राम जन्मभूमि स्थल को विवादित घोषित कर धारा 145 के तहत कुर्क कर वहां सरकारी रिसीवर नियुक्त कर दिया। बाद में यही निर्णय रामजन्म भूमि को मुक्त कराने का आधार बना। ""जब इस्तीफा देने के बाद सिटी मजिस्ट्रेट को यातनाओं का शिकार होना पड़ा। रामजन्म भूमि के पक्ष में निर्णय देने के बाद इस्तीफा देने वाले सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर गुरु दत्त सिंह को काफी यातनाओं का शिकार होना पड़ा था। उन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को तो इस बात के लिए सहमत कर लिया कि राम लला गर्भगृह में ही रहेंगे। किंतु सिटी मजिस्ट्रेट को मुख्यमंत्री की तरफ से परिणाम भुगतने की चेतावनी दी गई। सर्दी की भयानक ठिठुरन के बीच उनको सामान सहित सरकारी आवास से बाहर कर दिया गया। सारी रात उनको सड़क पर गुजारनी पड़ी थी। इसके बाद उन्होंने एक अधिवक्ता के घर में किराए का मकान लेकर काफी समय तक वहाँ रहे ।
बाबरी मस्जिद परिसर, कानून की धारा 145 के तहत सभी के लिए बंद कर दिया गया। इससे जुड़े सिविल मामलों की सुनवाई में आदालत ने मूर्तियां हटाए जाने या पूजापाठ में किसी तरह की रुकावट पर रोक लगा दी।छह दिसंबर 1992 तक मस्जिद के दरवाजे बंद रखे गए और अंदर आने की इजाजत सिर्फ उन पुजारियों को दी गईं जो रामलला की ‘देखभाल और पूजापाठ’ करते थे।
वीएचपी, बीजेपी और कांग्रेस ने चार दशक बाद इस मामले को इस तरह उठाया जिसकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी। बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की, जो एक जन आंदोलन बन गया, जिसका अंत 6 दिसंबर, 1992 के दिन बाबरी के विध्वंश के साथ हुआ।

      डॉ मुरली मनोहर जोशी जी के साथ शक्ति सिंह 
                 

                    संघर्षों की दास्तान 
रामजन्मभूमि की मुक्ति का संघर्ष 421 वर्ष की सुदीर्घ यात्रा कर परिपक्व हो चला था।मुगलों के समय का सशस्त्र प्रतिकार लाखों रामभक्तों के बलिदान से विभूषित हो चुका था।मुक्ति संग्राम ने अंग्रेजों की कुटिलता का सामना किया और दोधारी तलवार से गुजरते हुए आराध्य की अस्मिता का अभियान आगे बढ़ाया। 15 अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता के साथ देश को प्रत्येक मोर्चे पर आगे ले जाने का संकल्प था। आपसी समझ और न्यायशीलता की संभावना भी प्रशस्त हो रही थी। हिंदुओं को उम्मीद थी कि मुस्लिम उनके आस्था केंद्रों पर से अपना दावा हटा लेंगे। रामजन्मभूमि के संदर्भ में इस तरह की उम्मीद तो कहीं अधिक संभावनाशील थी ।
जिस इमारत को मस्जिद बताया जा रहा था,उसके 14 स्तंभों की निर्माण शैली एवं शिल्प के साथ उस पर उत्कीर्ण हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां थी, जिससे हिंदुओं का दावा सहज परिभाषित होता था। एक मार्च 1528 को मीर बाकी रामजन्मभूमि पर बने मंदिर का शिखर तोड़ कर मंदिर के ढांचे पर मंदिर के मलबे से ही शिखर के स्थान पर गुंबद स्थापित करने में तो सफल रहा, किंतु रामभक्तों ने उसके अधिकार को निरापद नहीं रहने दिया। अब तो देश स्वतंत्र हो चुका था, राम भक्त न्यायिक व्यवस्था के तहत राम मंदिर पर अधिकार पाने की भावना से भर रहे थे। इस भावना से स्वतंत्र भारत की सरकार तो नहीं पिघली, किंतु रामलला शायद पिघल गए। वह 22/23 दिसंबर 1949 की रात थी, जब विवादित इमारत में रामलला का प्राकट्य हुआ । इस प्रसंग का अंकन 22/23 दिसंबर की रात वहां तैनात रहे मुस्लिम पुलिस आरक्षी बरकत के बयान में मिलता है । बरकत इसमें कहते हैं 'मस्जिद के भीतर से नीली रोशनी आ रही थी, जिसे देखकर मैं बेहोश हो गया'। इसके बाद दावेदारी का संघर्ष नए सिरे से मुखर होता है।

यद्यपि मुस्लिम आरक्षी के बयान से विवाद की गुंजाइश क्षीण पड़ जानी चाहिए थी, किंतु एकपक्ष के रुख के चलते यह संभव नहीं हो सका। रामभक्तों का उत्साह बना रहा और वह रामजन्मभूमि से रामलला का विग्रह हटाने को तैयार नहीं थे। चूंकि रामलला प्रकट हुए थे, इसलिए श्रद्धालुओं के उत्साह का ठिकाना नहीं था। स्थानीय साधु-संतों सहित दूर-दराज तक के श्रद्धालु पूरे विश्वास से भर कर रामजन्मभूमि की ओर उन्मुख हुए और रामलला का विग्रह न हटाए जाने का अभियान शीघ्रता से प्रभावी होता गया । इस अभियान का नेतृत्व तत्कालीन गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ एवं स्थानीय हनुमानगढ़ी से जुड़े महंत अभिरामदास सहित रामजन्मभूमि सेवा समिति जैसी संस्था कर रही थी । रामजन्मभूमि की 1934 से ही दावेदारी कर रहे महंत रामचंद्रदास 1949 तक परिपूर्ण युवा हो चले थे और इस अभियान में उन्होंने भी प्रभावी भूमिका निभाई। प्राकट्य के एक वर्ष के भीतर ही रामजन्मभूमि सेवा समिति के तत्कालीन सचिव गोपाल सिंह विशारद की ओर से 16 जनवरी 1950 को सिविल जज की अदालत में दो वाद दायर कर मूर्ति न हटाने और पूजा करने का अधिकार मांगा गया। जल्दी ही परमहंस रामचंद्रदास ने भी एक और वाद दायर कर रामलला के निर्बाध दर्शन-पूजन का अधिकार मांगा।
   ठाकुर गुरुदत्त सिंह का ऐतिहासिक निर्णय 
ये संघर्ष पूर्ण दिन थे । रामलला के प्राकट्य के बाद से ही केंद्र की जवाहरलाल नेहरू एवं प्रदेश की गोविंदवल्लभ पंत सरकार सक्रिय हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री से वार्ता के बाद मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत प्रतिमा हटाए जाने के निष्कर्ष तक पहुंचे और इस पर अमल कराने का दायित्व तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर गुरुदत्त सिंह को सौंपा। जिलाधिकारी केके नैयर इन संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण दिनों में छुट्टी पर थे । स्थिति पर नियंत्रण का दायित्व गुरुदत्त सिंह पर ही था । उन्होंने रामलला का विग्रह हटाए जाने में असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने शासन को भेजे गए पत्र में लिखा कि प्रतिमा यदि हटाई गई, तो स्थिति अनियंत्रित हो जाएगी। भगवान के साथ भक्ति का चमत्कार स्थापित हो उठा। इस पत्र के चलते गुरुदत्त सिंह को प्रशासनिक सेवा से हाथ धोना पड़ा। उनके पास शासन से उपकृत होने का अवसर था, किंतु सत्य का साथ देते हुए उन्होंने प्रशासनिक सेवा का परित्याग किया। कालांतर में गुरुदतत सिंह रामलला के प्राकट्य प्रसंग के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बन कर स्थापित हुए। वह सिटी बोर्ड के अध्यक्ष एवं जनसंघ के स्थापित नेता के भी रूप में अविस्मरणीय हैं। आज उनके पौत्र शक्ति सिंह रामलला के प्रति आस्था की विरासत आगे बढ़ा रहे हैं।
(ठाकुर गुरुदत्त सिंह के पौत्र शक्ति सिंह क़ो विशेष धन्यवाद, जिन्होंने इस खबर क़ो बनाने में सहयोग दिया। साथ ही द क्विंट  क़ो भी आभार )