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अन्तर्राष्ट्रीय देव हैं आदिदेव 'शिव', होती है विदेशों में भी पूजा-- डा गणेश




डा सुनील कुमार ओझा 

बलिया।। बलिया एक्सप्रेस राष्ट्रीय हिंदी साप्ताहिक के साथ एक भेट वार्ता में अमर नाथ मिश्र पी जी कालेज दुबेछपरा बलिया के पूर्व प्राचार्य  प्रोफेसर(डाॅ०)गणेश कुमार पाठक वर्तमान में लोकपाल जननायक चन्द्रशेखर विश्वविद्यालय, बलिया,उ० प्र० ने बताया कि आदिदेव आशुतोष भगवान शिव की पूजा केवल भारत में ही ,नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों में भी प्राचीन काल से होती चली आ रही है। प्राचीन काल में भारत का सम्पर्क विदेशों से प्रत्येक क्षेत्र में गहरा रहा है। खासतौर से दक्षिणी - पूर्वी एशियाई देशों में भारत का पूर्ण प्रभाव रहा है। यही कारण है कि इन देशों के ऊपर भारत की सांस्कृतिक परम्परा का विशेष प्रभाव पड़ा है और यही कारण है कि हमारी धार्मिक - आध्यात्मिक प्रवृत्तियों, रीति - रिवाजों एवं प्रथाओं का प्रभाव यहां के जनमानस में समाहित हो गया है।




                    जकार्ता में शिव पूजा

     जकार्ता में शिव की पूजा बड़े ही धूम - धाम से की जाती है।यहां अनेक शिव मंदिर हैं। ऐसी मान्यता है कि मार्कण्डेय ऋषि भारत से यात्रा प्रारम्भ कर बाली द्वीप तक गए थे और इन्होंने जकार्ता सहित अन्य द्वीपों में भी  शिव पूजा का शुभारंभ किया। इस संबंध में यह भी कहा जाता है कि शिव का गोत्र भृगु है और मार्कण्डेय ऋषि भी भृगु वंशी ही थे, इसीलिए उन्होंने शिव पूजा का प्रचलन विशेष रूप से किया होगा।

      जकार्ता में एक 'नीललोहित' शिव मंदिर है। यह मंदिर काले पत्थरों से निर्मित है। यहां के शिव 'पाटयामासन'( कमल के आसन पर आसीन) हैं। यहां शिव की शक्ति को ही मुख्य शक्ति माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि शिव ही जन्म शक्ति में ब्रह्म,पालन शक्ति में विष्णु एवं संहार शक्ति में शिव हैं। शिव स्वत: कल्याण के प्रतीक हैं। यहां के शिव आठ पंखुड़ियों वाले कमल के आसन पर विराजमान हैं,जो 'अष्ट शक्ति' का प्रतीक माना जाता है। आठ दिशाओं की शक्ति ही 'अष्ट शक्ति' है। ऊपर - नीचे स्वयं शिव हैं। जकार्ता में जीवन को उन्नति करने के दो साधन माने गए हैं- पहला क्रिया एवं दूसरा ज्ञान। साधक को 'अष्ट सिद्धि' अभिष्ट है एवं शिव मूल में हैं। 

      जकार्ता में भी सोमनाथ, बद्रीनाथ,पुरी एवं रामेश्वर को बड़ा महात्म्य प्रदान किया जाता है। 'नील लोहित' शिव मंदिर के खुले प्रांगण में काले पत्थर से बने चौकोर चबुतरे पर लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा एवं त्रिदेवों की खड़ी प्रतिमाएं विशिष्ट वास्तुशिल्प में निर्मित हैं एवं ठीक मध्य में शिव की प्रतिमा एवं उनकी जटा से निकला जल उसे भर रहा है। ठीक सामने एक शिव की मूर्ति ग्यारह पटल कएहपआटल पुष्प पर बनी है। मध्यस्थ शिव को 'सागर गिरि शिव' कहा जाता है।

                द्वीप - दीपान्तरों में शैव धर्म 

        कम्पूचिया ( कम्बोज), जावा ( यवद्वीप),चम्पा, थाईलैंड, सुमात्रा आदि द्वीप - दीपान्तर प्राचीन काल में भारत के  उपनिवेश बन चुके थे तथा इन उपनिवेशों में शिव, शिवपद एवं दुर्गा की पूजा विशेष रूप से की जाती थी।यह परम्परा आज भी कायम है। 12 वीं सदी तक पौराणिक हिन्दू धर्म एवं शैव - वैष्णव मत के प्रभाव से इन देशों में बड़े - बड़े शिव मंदिरों सहित अन्य देवी- देवताओं के मंदिरों का भी निर्माण हो चुका था।

      जावा द्वीप में पौराणिक हिन्दू धर्म के शैव मत का विशेष प्रभाव था। त्रिशूल ,शंख, गदा, कमल एवं कुम्भ के प्रतीक आज भी विद्यमान हैं। आज भी यहां शिव की पूजा की जाती है।

       बाली द्वीप तो पूर्णतया हिन्दुओं का शरण स्थली था और वर्तमान समय में भी यहां हिन्दू धर्म के अनुयाई रह रहे हैं,जो शिव की पूजा - अर्चना करते हैं।



                    नेपाल में शिव पूजा 

     भारत का पड़ोसी देश नेपाल तो हिन्दू राष्ट्र ही है। नेपाल का कोई भी नागरिक ऐसा नहीं है जो शिव भक्त न हो। काठमांडू में विराजमान पशुपति नाथ का मंदिर विश्व में प्रसिद्ध शिव मंदिरों में से एक है। यहां सदैव अपार भीड़ लगी रहती है। महाशिवरात्रि के दिन तो यहां इतना अपार जनसमूह उमड़ पड़ता है कि दर्शन करना मुश्किल हो जाता है।






                     जापान में शिव पूजा

      जापान में भी शिव पूजा अत्यन्त ही धूम-धाम से की जाती है। जापान में शिव को ' अचल' कहा जाता है। शिव जापान के सर्वाधिक देवता हैं। शिव के विभिन्न छ: स्वरूपों की पूजा जापान में की जाती है। यहां शिव को फूडो ( अचल) कहा जाता है। यहां के लोगों का विश्वास है कि बूढ़ों (अचल शिव),रूद्र, अग्नि एवं वायु को धारण किए हुए हैं।जापान में अनेक शिव मंदिर है,जिनमें 'क्राशी कोचाशन'में स्थित फूडो (अचल)का मंदिर 1198 ई० में महंत गाई ओशो द्वारा स्वयं निर्मित कराया गया था। इसकी स्थापत्य कला अत्यन्त ही आकर्षक है। कामाकुरा  काल के प्रसिद्ध शिल्पी उन्की ने  इस मंदिर में शिव की प्रतिमा के साथ उनके आठ अनुचर देशों को प्रतिष्ठित किया। इसके बाद यदि हम देखें तो जापान का ही नहीं, बल्कि विश्व प्रसिद्ध अचल ( शिव) का मंदिर 'कोया के नानइन' में स्थित है। इसका निर्माण महान शिल्पी एवं संत कोबो दाई शी ने किया था, जिन्होंने पहाड़ी पर स्थित इस मठ की भी स्थापना की थी। इस मठ में स्थापित शिव को 'नामाकिरी' कहा जाता है।

               शिव स्तुति  से रूक गया तूफान  

       'नामाकिरी' शिव प्रतिमा का निर्माण चीन में प्रारम्भ हुआ था और जब इसे लेकर जापान लाया जा रहा था तो समुद्र में भयंकर तूफान आ गया। कोबोदाईशी  जो इस प्रतिमा को ला रहे थे,की नाव डूबने लगी।इस संकट की घड़ी में उन्होंने भगवान शिव को याद किया और तूफान रूक गया। इसी लिए शिव की इस प्रतिमा को 'नामाकिरी' 

(समुद्र को शांत करने वाला) 'अचल ' कहा जाने लगा। इस 'नामाकिरी' अचल के चमत्कार की एक अन्य घटना का भी वर्णन मिलता है। जब 1281 ई० में आततायी कुबलई खां के पराक्रमी मंगोल सैनिक जापानी द्वीप क्यूशू पर आक्रमण करने का इरादा कर रहे थे तो अचल की इस प्रतिमा को समुद्र के किनारे लाया गया और जैसे ही शिव की पूजा शुरू हुई, समुद्र में भयंकर तूफान उठा और सभी मंगोल सैनिकों को अपनी चपेट में लेकर काल - कवलित कर दिया। 

     जापान में 'कोया के बावइब' में स्थापित 'लाल अचल ' की ही तरह एक अन्य शिव प्रतिमा ,जिसे 'पीला अचल' कहा जाता है,निद्रा में प्रतिष्ठापित है तथा दूसरी 'नीला अचल' की प्रतिमा टोकरियों के 'जोरेन इन' मंदिर में प्रतिष्ठापित है। इस प्रतिमा में शिव पालिथी मारकर धीर - गंभीर मुद्रा में बैठे हुए हैं,जिनकी शोभा देखते ही बनती है।इस प्रतिमा के पीठ के पीछे अग्नि की लपट है।गले में एक काला एवं अति भयंकर सांप लिपटा हुआ है एवं बाएं हाथ में दुष्टों के विनाश हेतु गोल रस्सी है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जापान में शिव अत्यन्त ही लोकप्रिय एवं लोक कल्याणकारी  देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

                 सूरीनाम में शिव पूजा 

      सूरीनाम में पर्याप्त शिव मंदिर हैं ,जिनमें शिव,राम,कृष्ण,दुर्गा आदि देवी - देवताओं की पूजा की जाती है। पारामरिबो,निकेरी,सर मक्का एवं सूरीनाम  आदि जिलों तथा अन्य दूर- दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में शिव के सैकड़ों मंदिर हैं,जहां शिवरात्रि अत्यन्त ही धूम-धाम से मनाई जाती है। शिवरात्रि के दिन भक्त गण मंदिर में जाकर शिव की पूजा करते हैं,भएंटज्ञचढ़आतए हैं एवं प्रसाद ग्रहण करते हैं। शिवरात्रि के दिन शिव स्त्रोत का विशेष रूप से पाठ किया जाता है।


          अज़रबैजान का अद्भुत शिव मंदिर 

      कैस्पियन सागर के किनारे अज़रबैजान की राजधानी बाकू में भी शिव का एक प्राचीन मंदिर है। वैसे यह माना जाता है कि यह एक अग्नि मंदिर है,जहां अग्नि पूजक आकर पूजा करते हैं। वास्तव में यह मंदिर कब और कैसे बना और किसने बनवाया, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। किंतु ऐसी मान्यता है कि यहां पृथ्वी के अन्दर से प्राकृतिक गैसें जलती हुई प्रकट हुई थीं,जिसको लोगों ने अद्भुत शक्ति समझ कर  पूजा करना प्रारंभ कर दिया। ऐसा सुनने में आता है कि ज्यूर स्तरन सातवीं सदी में यहां आया था। उसके दो सदी बाद भारतीय हिंदू व्यापारी भी यहां आए, जिन्होंने इस जलती हुई गैस के ऊपर मंदिर निर्मित करवाया। इस मंदिर के ऊपर एक त्रिशूल भी लगा हुआ है,जिससे यह प्रकट होता है कि यह शिव मंदिर है। जब यह मंदिर विशेष प्रसिद्धि पा गया तो भारतीय साधु - संत यहां आकर तपस्या - साधना करने लगे। इन साधु - संतों के रहने हेतु इस मंदिर ज्ञके चारों तरफ गोलाकार रूप में 26 गोल कमरे भी बने हुए हैं। मंदिर के प्रांगण में स्थित शयनागार कक्ष एवं प्रार्थना कक्ष में शिव की लीलाओं से संबंधित अनेक चित्र बने हुए हैं।

           अमेरिका एवं यूरोप में शिव पूजा 

     अमेरिका में भी शिव पूजा का प्रचलन है। बल्कि यों कहा जाय कि यहां शैव आंदोलन चल रहा है। फिलाडेल्फिया  की विश्व विख्यात पुरातत्वविद् महिला क्रेमलिन ने सम्पूर्ण यूरोप में शैव आंदोलन चला रखा है। भारत ,नेपाल, श्रीलंका एवं अन्य एशियाई देशों तथा यूरोपीय संग्रहालयों एवं मंदिर तथा घरों में शिव की विभिन्न मुद्राओं में प्राप्त  प्रतिमाओं की चलती - फिरती प्रदर्शनी का आयोजन कर क्रेमरिश द्वारा सतत् शिव के कल्याणकारी स्वरूप को उजागर करने  का प्रयास किया जाता रहा है। न्यूयॉर्क के संग्रहालय में शिव के सद्ग्रिहस्थ रूप में शिव की, अर्धांगिनी उमा को आलिंगित करती हुई एक अति मनोहर प्रतिमा है,जिसकी छवि परम् आह्लादकारी एवं कल्याणकारी है।

     मारीशस, फिजी, श्रीलंका आदि देशों में भी अनेक शिव मंदिर एवं शिव प्रतिमाएं हैं,जहां शिव की पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त ज्ञभी विश्व में जहां कहीं भी हिंदू संस्कृति का प्रभाव है, वहां अन्य देवी- देवताओं के साथ शिव की भी पूजा की जाती है।

     उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि शिव की पूजा सम्पूर्ण विश्व में की जाती है। अतः शिव एक सार्वभौमिक ज्ञदेव हैं और संभवतः शिव के इसी स्वरूप को देखकर कैलिफोर्निया  में लारेंसलिवरमोर  की राष्ट्रीय प्रयोगशाला में तैयार विश्व के सबसे शक्तिशाली एक्स-रे संयंत्र का नाम भी 'शिव' ही रखा गया है,जिसकी तुलना शिव के तीसरे नेत्र से की गयी हैं।

      यही नहीं जब प्रथम आणविक विस्फोट हुआ तो उससे सहस्र सूर्यों के समान अग्नि ज्वाला एवं असह्य ओज - तेज का जो विकिरण हुआ,उसे देखकर रावर्ट ओपेन हैमर जैसे विश्व विख्यात वैज्ञानिक के मुख से भी अनायास ही 'शिव' नाम प्रस्फुटित हो उठा।उन्हें ऐसा आभास हुआ कि आणविक विस्फोट के रूप में शिव का भीषण भस्मकारी तीसरा नेत्र ही खुल गया। किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण विश्व के जनमानस के मन में शिव समाहित हैं।