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कहां गए वो दिन,जश्न से गुम होती जा रही पुरानी लोक कलाएं

 



ओमप्रकाश राय

  नरही - बलिया।।अब तो पुराने लोग भी भूल चले हैं और नई पीढ़ी को शायद मालूम ही ना हो कि एक जमाने में घर में नया मेहमान के आते ही पवंरियों की टोली पहुंचती थी। फिर नाच, गाना, भजन से लेकर सोहर तक..... ऐसा धमाल की फिजा में बस जश्न हीं जश्न। संचार के नए माध्यम और आधुनिकता की चकाचौंध ने पुरानी पारंपरिक लोक कलाओं को तोड़ कर रख दिया है। पहले गांव देहात में शादी विवाह या बच्चा पैदा होने की सूचना पाकर दरवाजे पर पवंरियों की टोली पहुंच जाती थी। नाच गाना शुरू हो जाता था। भजन से लेकर सोहर तक वह भी नाचते हुए। अजीब सी छठा विखेरते हुए महिलाओं और बच्चों का मन मोह लेते थे और इस खुशी में आसपास के लोगों विशेषकर महिलाओं की भीड़ जुट जाती थी और लोग जमकर इनके मनभावन गायन और नृत्य का आनन्द लेते थे। खुशी से इन पवंरियो को नेग भी मिलता था। सच कहा जाए तो अब कला के पारखी ही ना रहे तो कहां से पनपेगी कला और कैसे जिंदा रहेंगे कलाकार। इसी तरह विलुप्त हो जाएंगी पुरानी लोक कलाएं। 






आधुनिकता की चकाचौंध में और बेहतर जीवन स्तर की खोज में गांव उजड़ रहे हैं शहरों की ओर हो रहा है पलायन। और सच कहा जाए तो सुख समृद्धि भी धीरे-धीरे गांव से अपना नाता तोड़ रही है। ऐसे में कहां गांव और कहां गांव का लोक संगीत, लोकपरंपरा। अब तो गांव के माटी में भी जुड़े घरों में ललना के जन्म लेने पर पारंपरिक 'सोहर'और 'खिलौने' की जगह फिल्मी गानों के साथ जस्न मनाया जा रहा हैं। लोक संस्कृति की रक्षा के नाम पर इस विलुप्त होती जा रही पुरानी पारंपरिक लोक कला को जिंदा रखने के लिए सरकार को कोई ठोस कदम उठाना चाहिए।