पुल मेला से कुम्भ मेला तक का सफऱ : थेम्स नदी जैसी स्वच्छ क्यों नहीं है त्रिवेड़ी? सवाल का जबाब हम सबको ढूंढना है - प्रो अवधेश अग्निहोत्री
मधुसूदन सिंह
प्रयागराज।। लंदन के वेस्ट मिंस्टर विश्वविद्यालय मे अपने शिक्षण कार्य के दौरान मुझसे पूंछा गया वो सवाल - थेम्स नदी की तरह स्वच्छ क्यों नही है त्रिवेणी? आज भी दिल व दिमाग़ मे एक कशिश के साथ दर्द का एहसास कराता है। यह बातें प्रो अवधेश अग्निहोत्री ने बलिया एक्सप्रेस से एक साक्षात्कार मे कही। कहा कि लंदन मे मुझसे पूंछे गये सवाल का जबाब ज़ब मै तलाशने बैठा तो मुझे अपने 9 साल की उम्र मे, आजादी के बाद लगे पहले कुम्भ की याद से लेकर 2013 इलाहबाद जंक्शन पर हुए रेल हादसे की सभी भयावह तस्वीरें मन मस्तिष्क पर चल चित्र की तरह चलती हुई साफ दिखने लगी। मै यह भी सोच कर दुखी हो रहा हूं कि विश्व की 5 वी अर्थ व्यवस्था वाले देश मे आज भी लाशों को नदियों मे यूं ही प्रवाहित करने की विवशता, अरबों खरबों रूपये गंगा सफाई के नाम पर खर्च होने के बाद भी गंदे नालो का गंगा मे सीधे दूषित पानी छोड़ना और लाखों लोगों का नदी के किनारे शौच करने (इस बार काफी हद तक कुम्भ मेला के क्षेत्र मे शौचालय की व्यवस्था है ) की विवशता से कब निजात मिलेगी। प्रदेश की योगी सरकार ने कुम्भ को विश्व मानचित्र पर स्थापित करने का जो प्रयास किया है और जो कर रही है, उसके लिये साधुवाद है, लेकिन शवों का सीधे नदियों मे प्रवाहित होना और गंदे नालो का सीधे गंगा आदि नदियों मे मिलना चिंता का विषय आज भी है।
पुल मेला से कुम्भ मेला तक का सफर
न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय ने सूचना साझा की थी कि आजादी से पहले कैसे महामना मालवीयजीने "पुल मेला" को कुंभ मेला की पहचान दिलाई। विदेशी अखवार (गार्जियन आदि) कुंभ को पुल मेला के नाम से प्रचारित करते रहे। इसकी सांस्कृतिक, समाजशास्त्रीय महिमा को केवल नकारने की साजिश करते रहे।
यहाँ प्रयाग कुंभ के दो हादसो की चर्चा करूंगा जिसका मेरे अस्तित्व से गहरा संबंध है। मौनी अमावस्या तीन फरवरी १९५४ को नेताओं के जमघट और स्वयं नेहरू जी के आगमन में व्यस्थ अधिकारी, आजादी के वाद का पहला कुंभ, अतिरिक्त उत्साह, व्यवस्था और अनुभव का नितांत अभाव, भीड़ नियंत्रण की यांत्रिकी और संसाधनो का असफल प्रयोग, कमजोर पुल और पचास लाख की भीड़ का दवाव, घटना घट गई। लगभग १००० लोग दवकर, डूबकर मर गये और हजारो घायल हो गये।त्रिवेणी एक बार मे अपनी इतनी संतानों को अपने अंक में समा नही पाई,लाशे सडती रही।
इसी भीड़ मे ससुर खदेरी नदी के समीप किशनपूर, फतेहपूर के स्वतंत्रता सेनानियों जे. पी. अग्निहोत्री, रमादेवी अग्निहोत्री, एवं उनके ९ वर्षीय पुत्र अवधेश अग्निहोत्री भीड़मे दब कर एक टुटे पुल के नीचे कटकटाती सर्दीमें ठंडे पानीमें आसन्न मृत्यू से घंटो संघर्ष करते रहे। प्रशासन लोगों को सहायता पहुंचाने मे पूर्ण विफल,कुछ लोगोंकी मदद से हम लोग बाहर निकले,देखा चारो और लाशे ही लाशे पड़ी थीं।
दूसरी घटना २१ वी सदी में असहिष्णु मानव और घटिया रेल एवं मेला प्रशासन के कारण घटी।१० फरवरी २०१३, केंद्र में मनमोहन सरकार,अब मैं ६८ वर्ष का हो चुका था,तभी देखा एक भारी भीड़ का रेला जंक्शन इलाहावाद में गाड़िया पकड़ने के लिए दौड पड़ा। एक पुल की रेलिंग तोड़ते हुए लोग एक के ऊपर एक गिरते गए और ४० लोगोंकी मौत, लगभग ६० लोग गंभीर घायल हो गये।अखबारों ने लिखा मेला प्रशासन की बदमाशी, भीड़ भगाने की साजिश और रेल्वे प्रशासन की अराजकता, इस हादसे का कारण थी। इस रेले में में एक कुली की सहायता मै दुबारा से बच पाया। उस समय मै भवंश मेहता महाविद्याल भरवलिया मे प्रिंसिपल था और प्रतिदिन महाविद्यालय ट्रेन से अता जाता था।
दोनों घटनाओं का दर्द मेरे लिए न भुला पाने का सबब बन गया।व्यवस्था के प्रति कुंठा,सवाल वही पुराने १९५४ से २०१३ तक,|जवाबदेही किसकी ? लालबहादूर शास्त्री होते तो प्रायश्चित करते,अब वैसे नेता कहा ?
पर वाह रे त्रिवेणी, तेरा प्रवाह सभी दर्द और दुःखोको कम कर देता है।गत माह लंदन स्थित वेस्ट मिंस्टर मे नवोन्मेषी भारत विद्या व्याख्यान के दैरान एक प्रश्न मुझसे पुछा गया कि आपकी महासंस्कृति की त्रिवेणी इतनी मैली क्यों हैं? विसर्जित तन्वंगी नदियों का हथ क्या है ? यह थेम्स जैसी साफ क्यो नही है? इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर ढूंडने की चेष्टा मैंने विक्रम शेठ के उपन्यास ए सुटेबुल बाँय मे की, असंतोष के साथ। बता दे कि इलाहबाद विश्वविद्यालय मे प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद श्री अग्निहोत्री तीन साल तक लंदन के वेस्ट मिंस्टर विश्वविद्यालय मे विजिटिंग प्रोफेसर के रूप मे कार्यरत थे।