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विवेकशीलता हमें सिखाती है अच्छे और बुरे मे भेद करना : राजू बाबू सिंह (सेवा निवृत्त आईपीएस अधिकारी )



लखनऊ।। सहसा विदधीत न क्रियामविवेक: परमापदां पदम्।

             वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धा: स्वयंमेव संपदा :।

किरतार्जुनीयम् महाकाव्य में महाकवि भारवि ने यह बताया है कि किसी भी कार्य को करने के पहले पूर्णतया विवेक और विश्लेषण किया जाना चाहिए। यदि मनुष्य विवेक और विश्लेषण करके कार्य नहीं करता है तो अविवेक की अवस्था में किए जाने वाले कार्यों से विपत्तियां यानी परेशानियां खड़ी हो सकती है। आगे कहा है कि विमर्शकारी व्यक्ति के गुणों से लुब्ध होकर के समस्त संपत्तियां यानी सभी प्रकार की अच्छी उपलब्धियां उसे प्राप्त होती हैं। तात्पर्य है कि विवेक शक्ति का विवेकशीलता का प्रयोग करने के पश्चात् जब हम कोई कार्य करते हैं तो उसके अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं विवेकशीलता वह शक्ति है जो हमें अच्छे और बुरे में भेद करना सिखाती है हमें सत् और असत् का ज्ञान कराती है।

ज्ञान मृत होता है, उसमें ना तो स्वयं की चेतना होती है न स्वयं की सक्रियता, उसे चेतन होने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है और सक्रिय होने के लिए बुद्धि से संयोग की। लेकिन ज्ञान के सदुपयोग और सुसक्रियता हेतु विवेक की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए हम ज्ञान के माध्यम से परमाणु शक्ति की खोज करते हैं उसका सदुपयोग या दुरुपयोग करेंगें यह हमारे विचारों पर निर्भर है यदि हम विवेकशील विचारवान है तो निश्चय ही हम इस परमाणु शक्ति का उपयोग सृजनात्मक कार्यों के लिए करेंगे और यदि हमारी विवेकशीलता नहीं है तो हम इस शक्ति का उपयोग विघटनकारी कार्यों के लिए करेंगे।

      मनुष्य का मानस अनंत शक्तियों का भंडार है, लेकिन सबसे बड़ी शक्ति है विवेक। विवेक ही वह शक्ति है जो हमें सत्प्रेरणा देती है और उचित निर्णय करने में सहायक होती है। यदि मनुष्य विवेक के आलोक में चलता रहे तो बुद्धि उचित निर्णय लेने में सफल होती है। दुख- कष्टों , समस्याओं की संभावना कम होकर संशय मिट जाते हैं। मनुष्य में यह विवेक शक्ति उसे संसार के समस्त प्राणियों से अलग करके विशिष्ट पहचान देती है और उसे सर्वशक्तिमान बनती है। महाभारत में वेदव्यास ने भी यही लिखा है। यह शक्ति अन्य प्राणियों में नहीं है, और इसी शक्ति के बल पर मनुष्य अन्य प्राणियों को अपने वश में कर सकता है, जबकि अन्य प्राणी मनुष्य को अपने वश में नहीं कर सकते। इसी आधार पर यह मान लिया गया कि मनुष्य कुछ भी करें कुछ भी खाए कुछ भी पिए , उसके लिए सब ठीक है। इस मान्यता का मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुरुपयोग किया है। 



    श्रेष्ठ होने का मतलब है मनुष्य वही खाये जो उसके लिए परमात्मा ने अंतस् चेतना के माध्यम से आदेश दिया था। मनुष्य वही पिए जो उसके लिए नियत किया गया। वेद व्यास ने वेदों का सार बताते हुए कहा था कि हम दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार ना करें जो स्वयं उसे पसंद ना हो। हमें कोई आघात पहुंचता है तो हमें कष्ट होता है। ठीक इसी आधार पर हमें अपने विवेक से यह सोचना चाहिए हमारे द्वारा अन्य लोगों को पीड़ित करने से उतना ही कष्ट होता है जितना हमें। इसीलिए"अहिंसा परमो धर्म:" की शिक्षा हमें दी गई है। दूसरों को कष्ट पहुंचाने की इस प्रवृत्ति ने मनुष्य को दिग्भ्रमित किया है और निरंकुश तथा निष्ठुर बनाया है।

इसीलिए कहा गया है कि -

     आत्मवत् सर्वभूतेष य: पश्यति स: पंडित:।

आज विवेकशीलता के अभाव में मनुष्य शारीरिक और मानसिक दृष्टि से निरंतर अस्वस्थ होता चला जा रहा है। अपराध ,नशाखोरी ,मिलावट, जमाखोरी, तनाव ,क्रूरता, पारस्परिक शोषण, उच्छृंखलता ,धोखाधड़ी ,आपाधापी , स्वार्थ ,लोलुपता आदि दुर्गुण विवेकशीलता के अभाव में दिनों दिन बढ़ रहे हैं। परिणाम स्वरूप मनुष्य का पतन होता जा रहा है और वह आनंद से दूर होता चला जा रहा है। 



मनुष्य सामाजिक प्राणी है और सर्वश्रेष्ठ भी है लेकिन सामाजिकता व श्रेष्ठता की सार्थकता तभी है जब वह विवेक पूर्ण जीवन जिये।क्योंकि विवेक ही मिश्रित नीर क्षीर रुपी जीवन की समस्या को पुनः पानी का पानी और दूध का दूध कर सकने कि सामर्थ्य रखता है। नीर क्षीर विवेकी मनुष्य अर्थात् जिसमें अच्छे और बुरे को पहचानने का सामर्थ्य है,ऐसे मनुष्य सांसारिक जीवन में रहते हुए भी सांसारिकता से दूर उस परम सत्य को पहचानने की क्षमता रखते हैं, ऐसे पुरुष का कभी भी कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता । 

लिखते हैं भर्तृहरी 

अम्भोजिनीवनविहारविलासमेव, हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता।।

न तु अस्य दुग्धजलभेदविधौप्रसिद्धां, वैदग्धकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्था।।

अर्थात विधाता कितना भी क्रुध्द हो जाए  किन्तु वह हंस के नीर क्षीर विवेकी गुण को समाप्त करने में कभी समर्थ नहीं हो सकता है। 

विवेकी मनुष्य ही सांसारिकता के पाश (बंधन )को समझता है। गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को स्थितप्रज्ञ के विषय में समझाते हुए कहते हैं कि विवेकशील पुरुष इंद्रियादि विषयों को त्याग देता है, मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को विवेकशीलता की शक्ति के बल पर त्याग देता है और इंद्रिय निग्रह करके इंद्रियों को वश में करके अंततः अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। 

विहाय कमान्सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:

निर्ममो निरहंकार: से शान्तिमधिगच्छति

श्री कृष्ण कहते हैं कि समस्त कामनाओं को त्याग करके निस्पृह और निर्मम भाव से अहंकार रहित होकर के व्यक्ति अत्यंत शांति को प्राप्त होता है और हे  पार्थ यही ब्राम्ही स्थित है। यह ब्राह्मी स्थिति विवेकशीलता की शक्ति से ही प्राप्त होती है। इसे प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होते हैं और अंत काल में इसी ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाते हैं। यह केवल और केवल विवेकशीलता की शक्ति का ही परिणाम है।


       फोटो - राजू बाबू सिंह (सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी )